शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

आज मौसम फिर बदलने लग गया


आज मौसम फिर बदलने लग गया।
शान्त मन फिर से मचलने लग गया।।


धूप कल तक तो बहुत प्यारी लगी,
खुला आँगन आज खलने लग गया।


घर हमारा पत्थरों का था बना,
गर्म सांसों से पिघलने लग गया।


मेरी उंगली थाम के जो चलता था,
उसको थामे कोई चलने लग गया।


डूबता सूरज समन्दर में दिखा,
चाँद बाहर को उछलने लग गया।


हर किसी ने क्यों मेरी तारीफ़ की,
हर कोई मुझसे ही जलने लग गया।


बहुत चाहा प्यार फिर भी न मिला,
दर्द से ही दिल बहलने लग गया।


बहुत चाहा उम्र को रोके रखूँ,
हर एक पल, पल-पल फिसलने लग गया।
                                                                -विजय

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत चाहा उम्र को रोके रखूँ,
    हर एक पल, पल-पल फिसलने लग गया।waah

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  2. घर हमारा पत्थरों का था बना,
    गर्म सांसों से पिघलने लग गया।

    वाह ………………गज़ब के भाव हैं…………शानदार गज़ल्।

    जवाब देंहटाएं
  3. बेहतरीन गज़ल है। कुछ शेर तो बेहद लाज़वाब लगे जैसे कि यह..

    मेरी उंगली थाम के जो चलता था,
    उसको थामे कोई चलने लग गया।

    जवाब देंहटाएं
  4. सुन्दर प्रस्तुति |
    त्योहारों की यह श्रृंखला मुबारक ||

    बहुत बहुत बधाई ||

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत सुन्दर
    आपको दीप पर्व की सपरिवार सादर शुभकामनाएं

    जवाब देंहटाएं
  6. मेरी उंगली थाम के जो चलता था,
    उसको थामे कोई चलने लग गया।
    बहुत ही उम्दा रचना!


    दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
    जहां जहां भी अन्धेरा है, वहाँ प्रकाश फैले इसी आशा के साथ!
    chandankrpgcil.blogspot.com
    dilkejajbat.blogspot.com
    पर कभी आइयेगा| मार्गदर्शन की अपेक्षा है|

    जवाब देंहटाएं
  7. आपकी सुन्दर टिप्पड़ियो के लिए बहुत बहुत धन्यवाद

    जवाब देंहटाएं

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