शनिवार, 28 जुलाई 2012

यह ज़िन्दगी भी अज़ीब मेला है

वो कहां है, कैसा है, है भी कि नहीं,
ख़ुदा के वास्ते न सोच बड़ा झमेला है

कहीं पे राग-रंग कहीं पे ग़म का समन्दर,
यार! यह ज़िन्दगी भी अज़ीब मेला है।

ज़िन्दगी ने ठोकरें देकर जिसे सिखाया है,
वह न किसी का गुरू है न किसी का चेला है।

ख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा,
वह भीड़ में भी सदा अकेला है।

किसान का दर्द क्या समझें संसद वाले,
जेठ के ओले, सूखा सावन कहां झेला है।
                                                            -विजय
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