बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

इस जीवन से सम्पृक्त हुआ

   
हम बहुत चले, हम बहुत खिले
उत्तंग पहाड़ों की चोटी पर,
हम शिखरों से गले मिले
उन बर्फीली राहों में हम
गिरे-उठे-फिसले-संभले
पुष्पाच्छादित तरल ढलानों पर
हमने कितना विश्राम किया
सूंघा-सहलाया-तोड़ा भी
उन पर सोकर आराम किया।
जब धूप चढ़ी तब देवदारु के
नीचे भी विश्राम किया
फिर जल-प्रपात में खड़े-खड़े
बालू रगड़ा स्नान किया।
निर्वसन रहे पर फ़िक्र नहीं
मानव क्या पशु का भी ज़िक्र नहीं,
वो इन्द्रासन पर्वत है और
ये हनुमान उत्तंग शिखर
वो व्यास नदी का उद्गम है
हर ओर धवल चहुं ओर धवल
यह जंगल भोजपत्र का है
उस ओर धूप के सघन कुंज,
कल-कल करते चश्मे बहते
ले करके फूलों की सुगन्ध।
नीचे पक्षी का कलरव है
पर ऊपर तो नीरव अनन्त
उस नीरवता में गया नहीं
कि मेरा अपनापन गया कहीं
विस्मृत सा दिग्भ्रमित खड़ा
उस असीम में पिघल गया
अपनी सीमा से निकल गया।
तन-मन के बन्धन शिथिल हुए
मैं सब बन्धन से मुक्त हुआ
इस जीवन से सम्पृक्त हुआ।।
                                                             -विजय

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

दोहे-

‘भाई-भाई सकल जग’ कहता पाक़ कलाम।
दहशतगर्दी कृत्य से, शरमिन्दा इस्लाम।।

फ़िक्रे ख़ुदा में रम रहे, सकल मास रमजान।
उसमें ही बम फोड़कर किया घिनौना काम।।

झांको थोड़ा पलटकर, माज़ी में रहमान।
वंशवेलि मिल जायगी, हममें एक समान।।

दिल को जीते प्यार से, हज़रत का पैगाम।
निर्मम हत्या तुम करो, लेकर उनका नाम।।

वहशी-क़ातिल क्या कहूँ? लानत तेरे नाम।
ख़ूनी रिश्ते को किया, शर्मसार बदनाम।।


गिने-चुने सिरफिरे हैं, सकल क़ौम बदनाम।
नये ख़ून में भर दिया, किसने ज़हर तमाम।।

                                                                       -विजय

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

दर्द आख़िर दर्द है

ग़र निकल आयी ज़रा सी चीख तो क्या हो गया?
एहसास को कितना दबाऊँ दर्द आख़िर दर्द है।
हर हाल में हंसते रहे हर मौज़ में बहते रहे,
ऐसे मौज़ी फ़क्कड़ों का आज चेहरा ज़र्द है।।

आग से ही खेलने की एक लत जिसको लगी,
तलवे तो उनके गरम हैं पर हथेली सर्द है।
साफ़-सुथरे ढंग से करता जो घर की परवरिश,
आज के हालात में समझो कि असली मर्द है।।

देख करके भूख बीमारी और लाचारगी,
आँख जिसकी नम नहीं है वह बड़ा बेदर्द है।
ओढ़ करके सर से पा तक रेशमी मंहगे लिबास,
जिसका पानी मर गया पूरी तरह बेपर्द है।।

मत निहारो रास्ता उनका जो आगे कर गये,
सब चुनावी दाँव हैं कोई नहीं हमदर्द है।
गाँव के मेहनतकशों को देखकर हंसते ‘विजय’
सबका चूल्हा जो जलाये उसका चूल्हा सर्द है।।
                                                                              -विजय

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

समाधान-

जब अन्तर ही कामनाओं का त्याग कर दे
तभी मोक्ष है।
सर मुड़ाने या जटा बढ़ाने से क्या,
पीताम्बर पहनो या श्वेताम्बर
ये तो बाहरी आवरण हैं।
अभ्यन्तर ही वासनाओं से
विमुख न हुआ तो जीवन
अपरिवर्तित ही रहा।

गृहस्थ हो या सन्यासी
परमपिता से जुड़ने का
समान अवसर सभी को है
और मोक्ष तो उसको भी
पाने की वासना का त्याग है।
कोई इन्द्रिय निग्रह, कोई इन्द्रिय समाधान
इसका समाधान मानता है
पर
मैं इन्द्रिय उदासी ही
समाधान समझता हूँ
                                                                -विजय
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