गुरुवार, 8 मार्च 2012

तुम्हारी क्या इच्छा है?



सारा विश्व ईश्वर निर्मित
फिर दुःख-दर्द-दुर्भावना क्यों?
हम सब अगर कठपुतली हैं,
सब कुछ हम ही हों
है यह भावना क्यों?

मन और मनोवृत्ति की डोर
की छोर तुम्हारे हाथ है,
फिर यह आतंकवाद का साया
कहाँ से आया?

कर्मफल का परिणाम अगर
ग़ुर्बत और बीमारी है
तो कर्म की प्रेरणा
तो तुम्हारी है!

हे प्रभो!
यह खेल आख़िर
कब तक खेलोगे?
जितनी जाने डाली हैं
क्या खेल-खेल में सब ले लोगे?

मानव तो तुम्हारा रूप है,
इसका सब कुछ तो तुम्हारे अनुरूप है,
तुम्हारी अनुकृति में विकृति!
तुम्हारी क्या इच्छा है?
कृष्ण और महाभारत की प्रतीक्षा है?
या ‘सत्यमेव जयते’ में
अविचल आस्था की परीक्षा है?
(चित्र गूगल से साभार)
                                                               -विजय
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