शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

उठो जागो नौजवानों!

उठो जागो नौजवानों!
बदल दो इस व्यवस्था को,
क्या तुम्हारा खून ठंढा हो गया है?
या तुम्हारे रीढ़ की हड्डी नहीं है?

है भयावह दुर्दशा और दुर्व्यवस्था,
हर तरफ़ अन्याय की संगत अवस्था,
हर काम का है एक फंडा घूस,
ले रहे हैं देश को सब चूस,
हर सुरक्षा में बड़ा सा छेद,
दे रहे हैं दुश्मनों को भेद,
ध्वस्त है कैसा समूचा तन्त्र,
अब सुधरने का न कोई मन्त्र।

और तुम हो मस्त
गुटके में, धुंआ में!
बन्द कानों में महज़ संगीत लहरी!
विश्व का क्रन्दन सुनेगा कौन?
क्या बनेगे वृद्ध अब इस देश के प्रहरी?
तुम रात भर रंगरेलियों में मस्त!
दिन को दस बजे सोकर उठोगे पस्त!

उठो! जागो! देश के तुम लाल!
जहां देखो बेईमानी, घूसखोरी,
अनाचार, कदाचार
गर्जना करके बनो तुम काल!
                                                         -विजय

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

और मुखौटों पे ही इटलाता रहा

तमाम उम्र मैं ईमान ही ईमान गाता रहा
क्या ख़ौफ़े ख़ुदा से अपने को भरमाता रहा?

भूख से जब अंतड़ियां कुलबुलाने लगीं,
अंगूठा चूस के बच्चा दिल बहलाता रहा।

ग़ुसलख़ाने में जब ठंड से हड्डियां कांपी
ज़ोर-ज़ोर से चालीसा चिल्लाता रहा।

जब भी शिद्दत से तुम्हारी याद आई
मैं टहलता रहा और गुनगुनाता रहा।

बुज़ुर्गों ने बहुत कुछ किया समाज के लिए
और मैं उसी का सूद-व्याज़ खाता रहा।

दिल में तो दर्द का सुनामी था,
फिर भी हंसता-हंसाता रहा।

ख़्वाहिशें तो मेरी फ़हश हैं यारों!
शरीफ़ज़ादा हूँ दिल तड़पाता रहा।

मुखौटों पर मुखौटे मैंने बदले हैं
और मुखौटों पे ही इठलाता रहा।
                                                        -विजय

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

हाइकू: फिर क्या करें?


1-
उम्र ढले
चाह नहीं
फिर क्या करें?
2-
हम आए
आप नहीं
फिर क्या करें?
3-
बच्चे बोले
चुप रहो!
फिर क्या करें?
4-
भूख लगे
अन्न नहीं
फिर क्या करें?
5-
प्यार हुआ
जात नहीं
फिर क्या करें?
6-
लड़की है
दहेज़ नहीं
फिर क्या करें?
7-
छुट्टा सांड़
खेत खाए
फिर क्या करें?
8-
आवकाश है
काम नहीं
फिर क्या करें?
9-
हाथ खुला
ज़ेब फटी
फिर क्या करें?
10-
देख रहा
लूट मची
फिर क्या करें?
11-
दोस्त सब
दुश्मन हुए
फिर क्या करें?
12-
गेहूँ पका
ओले पड़े
फिर क्या करें?
13-
याद आये
नींद न आये
फिर क्या करें?
14-
मन उड़े
तन शिथिल
फिर क्या करें?
15-
सपने बहुत
पहँच नहीं
फिर क्या करें?
16-
बॉस दुष्ट
बीबी रुष्ट
फिर क्या करें?
17-
वफ़ा पर
ज़फ़ा मिले
फिर क्या करें?
18-
कांटे बहुत
नंगे पैर
फिर क्या करें?
19-
धूप तेज़
छाया नहीं
फिर क्या करें?
20-
लिखूँ बहुत
छपे नहीं
फिर क्या करें?
                                    -विजय

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

वाह क्या जवानी है

तमको मुझसे मुहब्बत है मैंने माना!
बात रक़ीब के ज़ुबानी है।

मैंने लम्हा-लम्हा तुमको जिया है
फिर ये क्यों बदग़ुमानी है।

सबके लिए शीरी मेरे लिए तल्ख़
इसके क्या मानी है?

जनम-जनम तक निभाने का वादा
बात ये पुरानी है।

हम रक़ीब से शादी रचाएंगे
अब ये नई कहानी है।

सुना है साक़ी ने मुझको पूछा था
चाल में फिर रवानी है।

शीशा भी तड़प के चटक जाए
वाह क्या जवानी है।
                                             -विजय

रविवार, 15 अप्रैल 2012

कोई फ़सादाती नहीं

पर्दगी-बेपर्दगी सब है हमारा ही फ़ितूर,
छोटे-छोटे बच्चों में ये बात क्यों आती नहीं?

हवा-पानी-धूप तो सबको बराबर मिल रहे,
प्रकृति मेरे-तेरे का तो भाव ही लाती नहीं।

सर्द मौसिम में खिली जो धूप तो सब खिल उठे,
भूलकर कि शाम गरमाने को भी पाती नहीं।

आज कलरव पक्षियों का तार सप्तक छू रहा,
उत्सवों में मन्द स्वर में ये कभी गाती नहीं।

प्यास मन की न बुझी है न बुझेगी ये कभी,
जाँ चली जाती है लेकिन प्यास तो जाती नहीं।

है सियासत गर्म इनको कह रहा कोई ग़लत,
सूर को भी सूर कहते मूर्ख, जज़्बाती नहीं।

जाति-मज़हब नाम पर हम आज जो हैं कर रहे,
घर जलाते ख़ुद का ख़ुद, कोई फ़सादाती नहीं।।
                                                                         -विजय

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

मानव तू मानव तो बन ले

अपने अन्दर झाँक ले मानव, तब तो कुछ कर पाएगा,
मानव तू मानव तो बन ले, तब तू सबको भाएगां

सबका खून लाल है बन्दे, जटिल प्रश्न तो नहीं है ये,
सबका स्वामी एक है बन्दे, यही बात हर धर्म कहे।

सारे प्राणी गुण सूत्रों को साझा करते सत्य यही,
मानव सेवा अपनी सेवा ही है कोई फ़र्क़ नहीं।

अन्दर झांको तो पावोगे फ़र्क़ नहीं है हम तुममें,
सुख-दुःख की अनुभूति हृदय में होती है हममें-तुममें।

अन्तर यदि निर्मल है तेरा तो सब एक समान दिखें,
अन्दर झाँको! ख़ुद को समझो! आवश्यकता क्या और लिखें।।
                                                                                           -विजय

रविवार, 8 अप्रैल 2012

खिल उठी है ज़िन्दगी फिर

खिलखिलाती धूप निकली, चाँद शरमा सा गया।
खिल उठी है ज़िन्दगी फिर, जो अंधेरा था गया।।

आइने में शक्ल देखी, फिर जवां लगने लगा,
लो हवा का एक झोंका, चेहरा ये सहला गया।।

हौसला है कूद करके, यह समन्दर तैर लूँ,
बाजुओं में अब कहाँ से फिर वही दम आ गया।।

भूख खुलकर लग रही है, अंतड़ियां चलने लगीं,
बन्द था जो मर्तबानों में ग़िज़ा सब खा गया।।

बारिशों में धूल जैसे पत्तियों की साफ़ हों,
वक्त का अवसाद धुलकर मन को फिर चमका गया।।

हैं अचम्भित आप सब ये यकबयक कैसे हुआ?
एक नन्हीं तोतली बोली से यह दम आ गया।।
                                                                                   -विजय
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