काम अगर करना हो कुछ भी,
जन-जन का आधार चाहिए।
ध्यान नहीं लगता निर्गुण में,
रूप एक साकार चाहिए।
सुख में भी मन क्यों उदास है?
मन को निश्छल प्यार चाहिए।
बहुत संजोए सपने हमने,
अब उनको आकार चाहिए।
सब कुछ सह लेने वालों को,
गीता की ललकार चाहिए।
लड़की बिन्दी को तरसे है,
लड़के को तो कार चाहिए।
गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
उनको आँखें चार चाहिए।
सम्बन्धों की उच्छृंखलता को,
थोड़ा सा आचार चाहिए।
अब तक जो सड़कों पर सोते,
उनको भी आगार चाहिए।
निर्वस्त्रों को वस्त्र चाहिए,
भूखों को भण्डार चाहिए।।
-विजय
जन-जन का आधार चाहिए।
ध्यान नहीं लगता निर्गुण में,
रूप एक साकार चाहिए।
सुख में भी मन क्यों उदास है?
मन को निश्छल प्यार चाहिए।
बहुत संजोए सपने हमने,
अब उनको आकार चाहिए।
सब कुछ सह लेने वालों को,
गीता की ललकार चाहिए।
लड़की बिन्दी को तरसे है,
लड़के को तो कार चाहिए।
गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
उनको आँखें चार चाहिए।
सम्बन्धों की उच्छृंखलता को,
थोड़ा सा आचार चाहिए।
अब तक जो सड़कों पर सोते,
उनको भी आगार चाहिए।
निर्वस्त्रों को वस्त्र चाहिए,
भूखों को भण्डार चाहिए।।
-विजय
आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-09-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति ||
जवाब देंहटाएंबधाई |
और बधाई ||
बहुत खूब कहा आपने...सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना..आभार
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर और प्रभावी अभिव्यक्ति॥
जवाब देंहटाएंbahut hi umdaa likha hai.badhaai aapko.
जवाब देंहटाएंब्लॉग पर आने के लिए धन्यवाद,
जवाब देंहटाएंबहुत संजोए सपने हमने,
जवाब देंहटाएंअब उनको आकार चाहिए।
वाह वाह.... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति सर....
सादर बधाई...
गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
जवाब देंहटाएंउनको आँखें चार चाहिए।
विजय जी, इन पंकतियो का मतलब समझाये
सब तो नहीं ,बहुत सारे शिक्छ्को का शिश्याओ से अतिरिक्त अनुराग पर यह कटाक्छ है अनिल जी.
जवाब देंहटाएंबहुत मर्मस्पर्शी भावपूर्ण अभिव्यक्ति.
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