शनिवार, 28 जुलाई 2012

यह ज़िन्दगी भी अज़ीब मेला है

वो कहां है, कैसा है, है भी कि नहीं,
ख़ुदा के वास्ते न सोच बड़ा झमेला है

कहीं पे राग-रंग कहीं पे ग़म का समन्दर,
यार! यह ज़िन्दगी भी अज़ीब मेला है।

ज़िन्दगी ने ठोकरें देकर जिसे सिखाया है,
वह न किसी का गुरू है न किसी का चेला है।

ख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा,
वह भीड़ में भी सदा अकेला है।

किसान का दर्द क्या समझें संसद वाले,
जेठ के ओले, सूखा सावन कहां झेला है।
                                                            -विजय

मंगलवार, 26 जून 2012

कुछ और कुछ और

मन में कुछ और है मुँह में है कुछ और।
या रब वे कहें कुछ और मैं सुनू कुछ और।।

पीना तो गुनाह बेलज़्जत है अगर साक़ी,
नाज़ो अदा से न पूछे कुछ और कुछ और।

ज़िन्दगी में हसरतें जितनी थी पूरी कर ली,
पर ज़ईफ़ी में भी मन कहता है कुछ और कुछ और।

क़र्ज़ तो जो भी था हम पर अदा कर डाला,
फ़र्ज़ फिर भी करे इसरार कुछ और कुछ और।

आये जो पीरो-पैग़म्बर सब सुपुर्देख़ाक़ हुए,
इस ख़ाक़ से सदा आती है अभी आएंगे कुछ और कुछ और।

जेब में दम हो तो बीबी कहे कुछ और कुछ और,
पेट में ख़म हो तो माँ कहे कुछ और कुछ और।।
                                                                         -विजय

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2012

उठो जागो नौजवानों!

उठो जागो नौजवानों!
बदल दो इस व्यवस्था को,
क्या तुम्हारा खून ठंढा हो गया है?
या तुम्हारे रीढ़ की हड्डी नहीं है?

है भयावह दुर्दशा और दुर्व्यवस्था,
हर तरफ़ अन्याय की संगत अवस्था,
हर काम का है एक फंडा घूस,
ले रहे हैं देश को सब चूस,
हर सुरक्षा में बड़ा सा छेद,
दे रहे हैं दुश्मनों को भेद,
ध्वस्त है कैसा समूचा तन्त्र,
अब सुधरने का न कोई मन्त्र।

और तुम हो मस्त
गुटके में, धुंआ में!
बन्द कानों में महज़ संगीत लहरी!
विश्व का क्रन्दन सुनेगा कौन?
क्या बनेगे वृद्ध अब इस देश के प्रहरी?
तुम रात भर रंगरेलियों में मस्त!
दिन को दस बजे सोकर उठोगे पस्त!

उठो! जागो! देश के तुम लाल!
जहां देखो बेईमानी, घूसखोरी,
अनाचार, कदाचार
गर्जना करके बनो तुम काल!
                                                         -विजय

गुरुवार, 19 अप्रैल 2012

और मुखौटों पे ही इटलाता रहा

तमाम उम्र मैं ईमान ही ईमान गाता रहा
क्या ख़ौफ़े ख़ुदा से अपने को भरमाता रहा?

भूख से जब अंतड़ियां कुलबुलाने लगीं,
अंगूठा चूस के बच्चा दिल बहलाता रहा।

ग़ुसलख़ाने में जब ठंड से हड्डियां कांपी
ज़ोर-ज़ोर से चालीसा चिल्लाता रहा।

जब भी शिद्दत से तुम्हारी याद आई
मैं टहलता रहा और गुनगुनाता रहा।

बुज़ुर्गों ने बहुत कुछ किया समाज के लिए
और मैं उसी का सूद-व्याज़ खाता रहा।

दिल में तो दर्द का सुनामी था,
फिर भी हंसता-हंसाता रहा।

ख़्वाहिशें तो मेरी फ़हश हैं यारों!
शरीफ़ज़ादा हूँ दिल तड़पाता रहा।

मुखौटों पर मुखौटे मैंने बदले हैं
और मुखौटों पे ही इठलाता रहा।
                                                        -विजय

बुधवार, 18 अप्रैल 2012

हाइकू: फिर क्या करें?


1-
उम्र ढले
चाह नहीं
फिर क्या करें?
2-
हम आए
आप नहीं
फिर क्या करें?
3-
बच्चे बोले
चुप रहो!
फिर क्या करें?
4-
भूख लगे
अन्न नहीं
फिर क्या करें?
5-
प्यार हुआ
जात नहीं
फिर क्या करें?
6-
लड़की है
दहेज़ नहीं
फिर क्या करें?
7-
छुट्टा सांड़
खेत खाए
फिर क्या करें?
8-
आवकाश है
काम नहीं
फिर क्या करें?
9-
हाथ खुला
ज़ेब फटी
फिर क्या करें?
10-
देख रहा
लूट मची
फिर क्या करें?
11-
दोस्त सब
दुश्मन हुए
फिर क्या करें?
12-
गेहूँ पका
ओले पड़े
फिर क्या करें?
13-
याद आये
नींद न आये
फिर क्या करें?
14-
मन उड़े
तन शिथिल
फिर क्या करें?
15-
सपने बहुत
पहँच नहीं
फिर क्या करें?
16-
बॉस दुष्ट
बीबी रुष्ट
फिर क्या करें?
17-
वफ़ा पर
ज़फ़ा मिले
फिर क्या करें?
18-
कांटे बहुत
नंगे पैर
फिर क्या करें?
19-
धूप तेज़
छाया नहीं
फिर क्या करें?
20-
लिखूँ बहुत
छपे नहीं
फिर क्या करें?
                                    -विजय

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

वाह क्या जवानी है

तमको मुझसे मुहब्बत है मैंने माना!
बात रक़ीब के ज़ुबानी है।

मैंने लम्हा-लम्हा तुमको जिया है
फिर ये क्यों बदग़ुमानी है।

सबके लिए शीरी मेरे लिए तल्ख़
इसके क्या मानी है?

जनम-जनम तक निभाने का वादा
बात ये पुरानी है।

हम रक़ीब से शादी रचाएंगे
अब ये नई कहानी है।

सुना है साक़ी ने मुझको पूछा था
चाल में फिर रवानी है।

शीशा भी तड़प के चटक जाए
वाह क्या जवानी है।
                                             -विजय

रविवार, 15 अप्रैल 2012

कोई फ़सादाती नहीं

पर्दगी-बेपर्दगी सब है हमारा ही फ़ितूर,
छोटे-छोटे बच्चों में ये बात क्यों आती नहीं?

हवा-पानी-धूप तो सबको बराबर मिल रहे,
प्रकृति मेरे-तेरे का तो भाव ही लाती नहीं।

सर्द मौसिम में खिली जो धूप तो सब खिल उठे,
भूलकर कि शाम गरमाने को भी पाती नहीं।

आज कलरव पक्षियों का तार सप्तक छू रहा,
उत्सवों में मन्द स्वर में ये कभी गाती नहीं।

प्यास मन की न बुझी है न बुझेगी ये कभी,
जाँ चली जाती है लेकिन प्यास तो जाती नहीं।

है सियासत गर्म इनको कह रहा कोई ग़लत,
सूर को भी सूर कहते मूर्ख, जज़्बाती नहीं।

जाति-मज़हब नाम पर हम आज जो हैं कर रहे,
घर जलाते ख़ुद का ख़ुद, कोई फ़सादाती नहीं।।
                                                                         -विजय

मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

मानव तू मानव तो बन ले

अपने अन्दर झाँक ले मानव, तब तो कुछ कर पाएगा,
मानव तू मानव तो बन ले, तब तू सबको भाएगां

सबका खून लाल है बन्दे, जटिल प्रश्न तो नहीं है ये,
सबका स्वामी एक है बन्दे, यही बात हर धर्म कहे।

सारे प्राणी गुण सूत्रों को साझा करते सत्य यही,
मानव सेवा अपनी सेवा ही है कोई फ़र्क़ नहीं।

अन्दर झांको तो पावोगे फ़र्क़ नहीं है हम तुममें,
सुख-दुःख की अनुभूति हृदय में होती है हममें-तुममें।

अन्तर यदि निर्मल है तेरा तो सब एक समान दिखें,
अन्दर झाँको! ख़ुद को समझो! आवश्यकता क्या और लिखें।।
                                                                                           -विजय

रविवार, 8 अप्रैल 2012

खिल उठी है ज़िन्दगी फिर

खिलखिलाती धूप निकली, चाँद शरमा सा गया।
खिल उठी है ज़िन्दगी फिर, जो अंधेरा था गया।।

आइने में शक्ल देखी, फिर जवां लगने लगा,
लो हवा का एक झोंका, चेहरा ये सहला गया।।

हौसला है कूद करके, यह समन्दर तैर लूँ,
बाजुओं में अब कहाँ से फिर वही दम आ गया।।

भूख खुलकर लग रही है, अंतड़ियां चलने लगीं,
बन्द था जो मर्तबानों में ग़िज़ा सब खा गया।।

बारिशों में धूल जैसे पत्तियों की साफ़ हों,
वक्त का अवसाद धुलकर मन को फिर चमका गया।।

हैं अचम्भित आप सब ये यकबयक कैसे हुआ?
एक नन्हीं तोतली बोली से यह दम आ गया।।
                                                                                   -विजय

गुरुवार, 8 मार्च 2012

तुम्हारी क्या इच्छा है?



सारा विश्व ईश्वर निर्मित
फिर दुःख-दर्द-दुर्भावना क्यों?
हम सब अगर कठपुतली हैं,
सब कुछ हम ही हों
है यह भावना क्यों?

मन और मनोवृत्ति की डोर
की छोर तुम्हारे हाथ है,
फिर यह आतंकवाद का साया
कहाँ से आया?

कर्मफल का परिणाम अगर
ग़ुर्बत और बीमारी है
तो कर्म की प्रेरणा
तो तुम्हारी है!

हे प्रभो!
यह खेल आख़िर
कब तक खेलोगे?
जितनी जाने डाली हैं
क्या खेल-खेल में सब ले लोगे?

मानव तो तुम्हारा रूप है,
इसका सब कुछ तो तुम्हारे अनुरूप है,
तुम्हारी अनुकृति में विकृति!
तुम्हारी क्या इच्छा है?
कृष्ण और महाभारत की प्रतीक्षा है?
या ‘सत्यमेव जयते’ में
अविचल आस्था की परीक्षा है?
(चित्र गूगल से साभार)
                                                               -विजय

बुधवार, 22 फ़रवरी 2012

इस जीवन से सम्पृक्त हुआ

   
हम बहुत चले, हम बहुत खिले
उत्तंग पहाड़ों की चोटी पर,
हम शिखरों से गले मिले
उन बर्फीली राहों में हम
गिरे-उठे-फिसले-संभले
पुष्पाच्छादित तरल ढलानों पर
हमने कितना विश्राम किया
सूंघा-सहलाया-तोड़ा भी
उन पर सोकर आराम किया।
जब धूप चढ़ी तब देवदारु के
नीचे भी विश्राम किया
फिर जल-प्रपात में खड़े-खड़े
बालू रगड़ा स्नान किया।
निर्वसन रहे पर फ़िक्र नहीं
मानव क्या पशु का भी ज़िक्र नहीं,
वो इन्द्रासन पर्वत है और
ये हनुमान उत्तंग शिखर
वो व्यास नदी का उद्गम है
हर ओर धवल चहुं ओर धवल
यह जंगल भोजपत्र का है
उस ओर धूप के सघन कुंज,
कल-कल करते चश्मे बहते
ले करके फूलों की सुगन्ध।
नीचे पक्षी का कलरव है
पर ऊपर तो नीरव अनन्त
उस नीरवता में गया नहीं
कि मेरा अपनापन गया कहीं
विस्मृत सा दिग्भ्रमित खड़ा
उस असीम में पिघल गया
अपनी सीमा से निकल गया।
तन-मन के बन्धन शिथिल हुए
मैं सब बन्धन से मुक्त हुआ
इस जीवन से सम्पृक्त हुआ।।
                                                             -विजय

सोमवार, 20 फ़रवरी 2012

दोहे-

‘भाई-भाई सकल जग’ कहता पाक़ कलाम।
दहशतगर्दी कृत्य से, शरमिन्दा इस्लाम।।

फ़िक्रे ख़ुदा में रम रहे, सकल मास रमजान।
उसमें ही बम फोड़कर किया घिनौना काम।।

झांको थोड़ा पलटकर, माज़ी में रहमान।
वंशवेलि मिल जायगी, हममें एक समान।।

दिल को जीते प्यार से, हज़रत का पैगाम।
निर्मम हत्या तुम करो, लेकर उनका नाम।।

वहशी-क़ातिल क्या कहूँ? लानत तेरे नाम।
ख़ूनी रिश्ते को किया, शर्मसार बदनाम।।


गिने-चुने सिरफिरे हैं, सकल क़ौम बदनाम।
नये ख़ून में भर दिया, किसने ज़हर तमाम।।

                                                                       -विजय

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

दर्द आख़िर दर्द है

ग़र निकल आयी ज़रा सी चीख तो क्या हो गया?
एहसास को कितना दबाऊँ दर्द आख़िर दर्द है।
हर हाल में हंसते रहे हर मौज़ में बहते रहे,
ऐसे मौज़ी फ़क्कड़ों का आज चेहरा ज़र्द है।।

आग से ही खेलने की एक लत जिसको लगी,
तलवे तो उनके गरम हैं पर हथेली सर्द है।
साफ़-सुथरे ढंग से करता जो घर की परवरिश,
आज के हालात में समझो कि असली मर्द है।।

देख करके भूख बीमारी और लाचारगी,
आँख जिसकी नम नहीं है वह बड़ा बेदर्द है।
ओढ़ करके सर से पा तक रेशमी मंहगे लिबास,
जिसका पानी मर गया पूरी तरह बेपर्द है।।

मत निहारो रास्ता उनका जो आगे कर गये,
सब चुनावी दाँव हैं कोई नहीं हमदर्द है।
गाँव के मेहनतकशों को देखकर हंसते ‘विजय’
सबका चूल्हा जो जलाये उसका चूल्हा सर्द है।।
                                                                              -विजय

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

समाधान-

जब अन्तर ही कामनाओं का त्याग कर दे
तभी मोक्ष है।
सर मुड़ाने या जटा बढ़ाने से क्या,
पीताम्बर पहनो या श्वेताम्बर
ये तो बाहरी आवरण हैं।
अभ्यन्तर ही वासनाओं से
विमुख न हुआ तो जीवन
अपरिवर्तित ही रहा।

गृहस्थ हो या सन्यासी
परमपिता से जुड़ने का
समान अवसर सभी को है
और मोक्ष तो उसको भी
पाने की वासना का त्याग है।
कोई इन्द्रिय निग्रह, कोई इन्द्रिय समाधान
इसका समाधान मानता है
पर
मैं इन्द्रिय उदासी ही
समाधान समझता हूँ
                                                                -विजय

शनिवार, 14 जनवरी 2012

आज के दोहे-

सत्य-अहिंसा रह गयीं, बातें केवल आज।
हिंसक, झूठे, भ्रष्ट सब पहने हैं अब ताज।।

शान्ति कमेटी के प्रमुख, गुप-चुप बुनते जाल।
दो वर्गों को लड़ाकर, कैसे लूटें माल।।

राजनीति के आड़ में हो गये मालामाल।
लखपति कैसे हो गये, कल थे जो कंगाल।।

छपते हैं अखबार में, अक्सर जिनके नाम।
दिखते कितने सभ्य हैं, छपते देकर दाम।।

लेते धरम का नाम सब, मुल्ला और महन्त।
पाखण्डों को धरम कह, कहलाए सब सन्त।।

कितने मोटे हो गये, ये समाज के जोंक।
मन करता है भोंक दूं, तोंद में बर्छी-नोक।।

बापू तुमने क्यों दिया, ये अनशन का मन्त्र।
हर कोई अनशन करे, ढीला हो गया तन्त्र।।

बिन कर्त्तव्य प्रबोध के, अधिकारों का ज्ञान।
सर्वनाश ही कर रहा, यह विष-वेलि समान।।
                                                                              -विजय

रविवार, 8 जनवरी 2012

ख़यालात कुछ ऐसे

ज़िन्दगी शर्म से हो रही है पानी-पानी,
आज के हालात कुछ ऐसे हैं।


हराम हो-हलाल हो, पा लेना है,
लोगों के ख़यालात कुछ ऐसे हैं।।


ता’उम्र खोजते रहे जवाब पर पा न सके,
ख़ुदी और ख़ुदाई के सवालात कुछ ऐसे हैं।


यादों के सफ़े पे वो आये और हम खिल उठ्ठे,
ज़िन्दगी के मुलाक़ात कुछ ऐसे हैं।


कुछ भी ग़लत होता है तो, निकलते हैं उनके हाथ,
आज के नेताओं के हाथ कुछ ऐसे हैं।


ख़ून सने होने के बावज़ूद कमल कहलाते,
कहलाते ही रहेंगे इमकानात कुछ ऐसे हैं।


सारी मुख़ालिफ फिज़ाओं के बावज़ूद ‘विजय’
फ़र्ज़ में करें गरल आत्मसात कुछ ऐसे हैं।
                                                                     -विजय

सोमवार, 2 जनवरी 2012

दिल सपने संजोने लगेगा

मत बतावो किसी को अपनी ख़ुशख़बरी
उसको दुख होने लगेगा।
ऊपर से वह ख़ुश दिखेगा, पर
उसका अन्तर रोने लगेगा।।

अपने घाव भी मत दिखावो किसी को, वह
उसमें उंगली पिरोने लगेगा,
तुम कराहोगे-तिलमिलावोगे,
वह तानकर सोने लगेगा।

सुनी-सुनायी बातें किसी से मत करना!
वह अफ़वाहों का माला पिरोने लगेगा,
झूठ का अम्बार लग जायेगा,
सच कहीं जाके कोने लगेगा।
ख़ुशफ़हमियों में हर व्यक्ति जीता है,
अपने हर शब्द लगे गीता है,
पर तारीफ़ में सावधानी बरतिए!
दिल सपने संजोने लगेगा।।
                                                          -विजय

रविवार, 1 जनवरी 2012

सपना और सच्चाई

स्वच्छ नीलाकाश में चिड़ियों का मस्त तिरना,
कोमल-रक्ताभ कोपलों पुष्पों के मध्य फिरना,
बचपन से मुझे लालसा के झूले में झुलाता है
निर्बन्ध-सीमाहीन दुनिया में बुलाता है।

हर रात सपने में भुजाएं तौल मैं उड़ता हूँ,
कभी श्याम, कभी स्वेत अश्व पर चढ़ता हूँ,
समुद्र की अतुल गहराइयों में मछलियों सा नग्न
आनन्द में तिरोहित और फिर स्वप्न भंग।

जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं से दो-चार,
बेलगाम-गतिमान ख़र्चे की घोड़ी पर सवार
मन प्रलोभनों के गहरे समुद्र में गोते लगाता है,
और फिर संभलते-संभलते अन्ततः बेपर्द हो जाता है।

आदिकाल से सपने और सच्चाई का यह अन्तर,
विचारशील हृदय को रख देता है मथकर,
कैसे होंगे वे जिनके सपने सच हुए होंगे!
इस मृत्युलोक में मरणोपरान्त जो जिए होंगे।।
                                                                         -विजय
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