आज मौसम फिर बदलने लग गया।
शान्त मन फिर से मचलने लग गया।।
धूप कल तक तो बहुत प्यारी लगी,
खुला आँगन आज खलने लग गया।
घर हमारा पत्थरों का था बना,
गर्म सांसों से पिघलने लग गया।
मेरी उंगली थाम के जो चलता था,
उसको थामे कोई चलने लग गया।
डूबता सूरज समन्दर में दिखा,
चाँद बाहर को उछलने लग गया।
हर किसी ने क्यों मेरी तारीफ़ की,
हर कोई मुझसे ही जलने लग गया।
बहुत चाहा प्यार फिर भी न मिला,
दर्द से ही दिल बहलने लग गया।
बहुत चाहा उम्र को रोके रखूँ,
हर एक पल, पल-पल फिसलने लग गया।
-विजय
बहुत ख़ूबसूरत वाह!
जवाब देंहटाएंबहुत चाहा उम्र को रोके रखूँ,
जवाब देंहटाएंहर एक पल, पल-पल फिसलने लग गया।waah
घर हमारा पत्थरों का था बना,
जवाब देंहटाएंगर्म सांसों से पिघलने लग गया।
वाह ………………गज़ब के भाव हैं…………शानदार गज़ल्।
बेहतरीन गज़ल है। कुछ शेर तो बेहद लाज़वाब लगे जैसे कि यह..
जवाब देंहटाएंमेरी उंगली थाम के जो चलता था,
उसको थामे कोई चलने लग गया।
सुन्दर प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंत्योहारों की यह श्रृंखला मुबारक ||
बहुत बहुत बधाई ||
वाह ..
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया !!
बहुत सुन्दर भाव है गज़ल के ..
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंआपको दीप पर्व की सपरिवार सादर शुभकामनाएं
मेरी उंगली थाम के जो चलता था,
जवाब देंहटाएंउसको थामे कोई चलने लग गया।
बहुत ही उम्दा रचना!
दिवाली की हार्दिक शुभकामनायें!
जहां जहां भी अन्धेरा है, वहाँ प्रकाश फैले इसी आशा के साथ!
chandankrpgcil.blogspot.com
dilkejajbat.blogspot.com
पर कभी आइयेगा| मार्गदर्शन की अपेक्षा है|
bhaut khub...
जवाब देंहटाएंआपकी सुन्दर टिप्पड़ियो के लिए बहुत बहुत धन्यवाद
जवाब देंहटाएं