हम बहुत चले, हम बहुत खिले
उत्तंग पहाड़ों की चोटी पर,
हम शिखरों से गले मिले
उन बर्फीली राहों में हम
गिरे-उठे-फिसले-संभले
पुष्पाच्छादित तरल ढलानों पर
हमने कितना विश्राम किया
सूंघा-सहलाया-तोड़ा भी
उन पर सोकर आराम किया।
जब धूप चढ़ी तब देवदारु के
नीचे भी विश्राम किया
फिर जल-प्रपात में खड़े-खड़े
बालू रगड़ा स्नान किया।
निर्वसन रहे पर फ़िक्र नहीं
मानव क्या पशु का भी ज़िक्र नहीं,
वो इन्द्रासन पर्वत है और
ये हनुमान उत्तंग शिखर
वो व्यास नदी का उद्गम है
हर ओर धवल चहुं ओर धवल
यह जंगल भोजपत्र का है
उस ओर धूप के सघन कुंज,
कल-कल करते चश्मे बहते
ले करके फूलों की सुगन्ध।
नीचे पक्षी का कलरव है
पर ऊपर तो नीरव अनन्त
उस नीरवता में गया नहीं
कि मेरा अपनापन गया कहीं
विस्मृत सा दिग्भ्रमित खड़ा
उस असीम में पिघल गया
अपनी सीमा से निकल गया।
तन-मन के बन्धन शिथिल हुए
मैं सब बन्धन से मुक्त हुआ
इस जीवन से सम्पृक्त हुआ।।
-विजय