रविवार, 25 सितंबर 2011

क्यों भाई! क्या गये हार?

भाग्य, प्रारब्ध, व्रत, त्योहार
क्यों भाई! क्या गये हार?

ज्योतिषी, नज़ूमी, पादरी, पाधा,
ये सब कर्मशील जीवन के बाधा।

ग्रह, नक्षत्र, साइत विचार,
डरे हुए मानुष का मनोविकार।

जीवन सतत प्रवाह है, साधना है,
सतत कर्म ही आराधना है।

नाम सम्मान, पैसा, समर्थन,
नाग के पहरे में गड़ा हुआ धन।

पाओगे नहीं! डस लेगा,
फ़कीर को कोई क्या देगा।

फ़कीरी अपनाओ, पा जावो निर्वाण,
नहीं तो बहुत मुश्किल से निकलेंगे प्राण।।
                                                                 -विजय

शनिवार, 17 सितंबर 2011

मिटे न मन की प्यास


सावन भादों जमकर बरसे, बहे पवन उनचास।
जल ही जल है, सृष्टि तरल है, मिटे न मन की प्यास।।


झूठ फ़रेब और सच्चाई, यह तो युग-युग से है भाई।
भोले करते गरलपान हैं, राम जायं वनवास।।


मन को रोको, आगे देखो, मत पलटो इतिहास।
आगे बढ़ना धर्म हमारा, जब तक तन में सांस।।


जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।


राम डूब गये, सीता धंस गईं, कृष्ण तीर के फांस।
पाण्डव गल गये बचा न कोई, मन में फिर भी आस!


बदला युग तो बदले सब कुछ, बदले रीति-रिवाज।
सीता भोगे दंश विरह का, सुर्पनखा रनिवास।।


बदला है युग फिर बदलेगा, हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।
बार-बार का ठगा हुआ मन, कर ले फिर विश्वास।।
                                                                                                                       -विजय

रविवार, 11 सितंबर 2011

जीवन-सार


जीवन गतिशाली रहे, मन आनन्द हिलोर।
तन भी लय पर साथ दे, ईश दिखें चहुँ ओर।।


जो भी अपने पास है, वही लगे पर्याप्त।
हर हालत सन्तोष हो, रहे अनुग्रह व्याप्त।।


सुख-दुःख दोनों का वरण, मन में हो समभाव।
हर रस का आनन्द है, सबका अलग प्रभाव।।


ईर्ष्या से मन मुक्त हो, पर सुख में आह्लाद।
हो निन्दा से मन विरत, स्व-चिन्तन में स्वाद।।


हर क्षण उसका ध्यान हो, अर्पित हो हर कर्म।
सब में वो ही व्याप्त है, सबकी सेवा धर्म।।


जिसको जो अभिनय मिला, करे उसे मन लाय।
लक्ष्य हो जीवन मुक्ति का, उसका यही उपाय।।
                                                                          -विजय

रविवार, 4 सितंबर 2011

जन-जन का आधार चाहिए

काम अगर करना हो कुछ भी,
जन-जन का आधार चाहिए।


ध्यान नहीं लगता निर्गुण में,
रूप एक साकार चाहिए।


सुख में भी मन क्यों उदास है?
मन को निश्छल प्यार चाहिए।


बहुत संजोए सपने हमने,
अब उनको आकार चाहिए।


सब कुछ सह लेने वालों को,
गीता की ललकार चाहिए।


लड़की बिन्दी को तरसे है,
लड़के को तो कार चाहिए।


गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
उनको आँखें चार चाहिए।


सम्बन्धों की उच्छृंखलता को,
थोड़ा सा आचार चाहिए।


अब तक जो सड़कों पर सोते,
उनको भी आगार चाहिए।


निर्वस्त्रों को वस्त्र चाहिए,
भूखों को भण्डार चाहिए।।
                                                        -विजय
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