शनिवार, 14 जनवरी 2012

आज के दोहे-

सत्य-अहिंसा रह गयीं, बातें केवल आज।
हिंसक, झूठे, भ्रष्ट सब पहने हैं अब ताज।।

शान्ति कमेटी के प्रमुख, गुप-चुप बुनते जाल।
दो वर्गों को लड़ाकर, कैसे लूटें माल।।

राजनीति के आड़ में हो गये मालामाल।
लखपति कैसे हो गये, कल थे जो कंगाल।।

छपते हैं अखबार में, अक्सर जिनके नाम।
दिखते कितने सभ्य हैं, छपते देकर दाम।।

लेते धरम का नाम सब, मुल्ला और महन्त।
पाखण्डों को धरम कह, कहलाए सब सन्त।।

कितने मोटे हो गये, ये समाज के जोंक।
मन करता है भोंक दूं, तोंद में बर्छी-नोक।।

बापू तुमने क्यों दिया, ये अनशन का मन्त्र।
हर कोई अनशन करे, ढीला हो गया तन्त्र।।

बिन कर्त्तव्य प्रबोध के, अधिकारों का ज्ञान।
सर्वनाश ही कर रहा, यह विष-वेलि समान।।
                                                                              -विजय

रविवार, 8 जनवरी 2012

ख़यालात कुछ ऐसे

ज़िन्दगी शर्म से हो रही है पानी-पानी,
आज के हालात कुछ ऐसे हैं।


हराम हो-हलाल हो, पा लेना है,
लोगों के ख़यालात कुछ ऐसे हैं।।


ता’उम्र खोजते रहे जवाब पर पा न सके,
ख़ुदी और ख़ुदाई के सवालात कुछ ऐसे हैं।


यादों के सफ़े पे वो आये और हम खिल उठ्ठे,
ज़िन्दगी के मुलाक़ात कुछ ऐसे हैं।


कुछ भी ग़लत होता है तो, निकलते हैं उनके हाथ,
आज के नेताओं के हाथ कुछ ऐसे हैं।


ख़ून सने होने के बावज़ूद कमल कहलाते,
कहलाते ही रहेंगे इमकानात कुछ ऐसे हैं।


सारी मुख़ालिफ फिज़ाओं के बावज़ूद ‘विजय’
फ़र्ज़ में करें गरल आत्मसात कुछ ऐसे हैं।
                                                                     -विजय

सोमवार, 2 जनवरी 2012

दिल सपने संजोने लगेगा

मत बतावो किसी को अपनी ख़ुशख़बरी
उसको दुख होने लगेगा।
ऊपर से वह ख़ुश दिखेगा, पर
उसका अन्तर रोने लगेगा।।

अपने घाव भी मत दिखावो किसी को, वह
उसमें उंगली पिरोने लगेगा,
तुम कराहोगे-तिलमिलावोगे,
वह तानकर सोने लगेगा।

सुनी-सुनायी बातें किसी से मत करना!
वह अफ़वाहों का माला पिरोने लगेगा,
झूठ का अम्बार लग जायेगा,
सच कहीं जाके कोने लगेगा।
ख़ुशफ़हमियों में हर व्यक्ति जीता है,
अपने हर शब्द लगे गीता है,
पर तारीफ़ में सावधानी बरतिए!
दिल सपने संजोने लगेगा।।
                                                          -विजय

रविवार, 1 जनवरी 2012

सपना और सच्चाई

स्वच्छ नीलाकाश में चिड़ियों का मस्त तिरना,
कोमल-रक्ताभ कोपलों पुष्पों के मध्य फिरना,
बचपन से मुझे लालसा के झूले में झुलाता है
निर्बन्ध-सीमाहीन दुनिया में बुलाता है।

हर रात सपने में भुजाएं तौल मैं उड़ता हूँ,
कभी श्याम, कभी स्वेत अश्व पर चढ़ता हूँ,
समुद्र की अतुल गहराइयों में मछलियों सा नग्न
आनन्द में तिरोहित और फिर स्वप्न भंग।

जीवन की आवश्यक आवश्यकताओं से दो-चार,
बेलगाम-गतिमान ख़र्चे की घोड़ी पर सवार
मन प्रलोभनों के गहरे समुद्र में गोते लगाता है,
और फिर संभलते-संभलते अन्ततः बेपर्द हो जाता है।

आदिकाल से सपने और सच्चाई का यह अन्तर,
विचारशील हृदय को रख देता है मथकर,
कैसे होंगे वे जिनके सपने सच हुए होंगे!
इस मृत्युलोक में मरणोपरान्त जो जिए होंगे।।
                                                                         -विजय
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