शनिवार, 31 दिसंबर 2011

गुरु द्रोण चीरहरण कर रहे हैं

गुरुतर भार था जिनके कन्धों पर
संवारने और सजाने का
नयी दिशा-नयी दृष्टि-नयी सोच से
नयी फ़सल उगाने का,
जिनसे अपेक्षा थी, विभिन्न वादों-
विवादों के भंवर से साफ़ बचाकर
निकाल ले जाने का,
जिनसे आशा थी, नवीनता के नाम पर
बौद्धिक अतिरेकता से परहेज की,
वे स्वयं आधुनिकता के नाम पर
अश्लीलता का वरण कर रहे हैं,
दुःशासन दूर खड़ा देखता है
गुरु द्रोण चीरहरण कर रहे हैं।।
                                                    -विजय

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने

आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने,
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।


रौंदकर अपने अहम को,
हाथ फैलाकर तुम्हारे द्वार पर,
दान की झोली लिए दर-दर फिरा,
आजीविका तो यह नहीं थी मान्यवर!


व्यस्तता के क्षण हुए तब सूर्य-रथ से
हो गयी चिन्तित सुस्वप्नों की लड़ी भी,
सूखकर जब रह गयी थी प्रियतमा के
मार्ग तकते अश्रुओं की वह झड़ी भी।


प्यार शिशुओं का न मुझको खींच पाया,
भावना कर्त्तव्य से बढ़कर नहीं है,
सोच कर यह पुष्प अन्तर के
न अब तक सींच पाया, पर
खुली जब आँख तो देखा
कि यह क्या?


मैं चला था साथ जिन सब बन्धुओं के
वे खड़े हैं हाथ में पत्थर उठाये!!
शक्ति पैरों की वहीं पर जम गयी तत्क्षण
विश्वास के मोती लगे जब कौड़ियों के मोल बिकने।


आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने।
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।।


याद करता रहा बीते हुए क्षणों की मिठास
भरमाता रहा अपने को रीते हुए सम्बन्धों में,
क्या रोक सकता है कोई!
शाम की ढलती हुई उजास?
धीरे-धीरे पर्त-दर-पर्त ज्यों-ज्यों खुले
प्रकृति के शाश्वत नियम
होने लगा इस बात का एहसास
कलियों की पंखुड़ियों का अवगुण्ठन
क्या हो सकता है पुष्पों के पास!
और अगर यह कसाव सिथिल न हुआ
तो क़ैद सौरभ, क्या रह जायेगा उदास!
कच्चे कठोर फल क्या पायेंगे?
पके हुओं की बू-बास!


तो ऐ मेरे मन! मत ले लम्बी निःश्वास
आने वाले की चिन्ता मत कर-
बीते क्षणों का रोना मत रो!
जी हर क्षण-हर पल
सुरभित करदे अपनी हर सांस!
                                                    -विजय

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

मत कल के घने कोहरे से ख़ौफ़ खाइये

अब ज़रा सी धूप निकली, जश्न मनाइये।
मत कल के घने कोहरे से ख़ौफ़ खाइये।।


मुस्कुरा के कहाँ चल दिये, ज़रा पास आइये,
ये बेरुख़ी हमीं से क्यूँ, ज़रा बैठ जाइये।


कल को छिड़ेगी जंग, अभी तना-तनी है,
पहले कुछ किया हो तो उसे अब भुनाइये।


बुज़ुर्गों का काम ही है, बच्चों से खेलना,
जो भूल चुके लोग वे किस्से सुनाइये।


रो-रो के सो गये बच्चे जो भूख से,
चर्चा बज़ट की हो रही उनको जगाइये।


निकलीं थी जितनी कोपलें, सब सांड़ खा गये,
अब गाय पूज-पूजकर मातम मनाइये।


जल चुकी हैं रस्सियां ऐंठन गयी नहीं,
मत तोड़िये भरम, मत हाथ लगाइये।।
                                                            -विजय 

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

वक्त की मार

समस्त जीवन का प्यार
मधुरता-अवलम्ब-जीवनाधार
हंसते-बतियाते-रूठते-मनाते
लम्बे सफ़र पर
बहुत-बहुत दिनो तक
अनन्त तक,
साथ चलने का आग्रह
वादा-संकल्प-विचार,
आजमाते, थहियाते एक दूजे को
कभी जीत, कभी हार।
बाहों में थाम लेने को जब सामने,
पड़ा हो सारा आकाश-सारा संसार
कभी देखा है?
उल्लास-उमंगों की ऊँची तरंगों को,
सहसा सन्नाटा साधते?
जैसे उफनते दूध पर पड़ गयी हो
शीतल जलधार!
जिन तरंगों में साहस-दमखम-उन्माद था
तूफ़ान से भिड़ने-खेलने का
एक हल्के हवा के झोंके से
सहमते-सिमटते देखकर
एहसास होता है कि
कितना कठिन-दुस्सह है
वक्त की मार।।
                                                    -विजय 

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

पंचमढ़ी-

झरने-
सुखद-सुमधुर-सुकुमार,
चपल-वंकिम-रसधार,
अमल-निर्झर-शीतल फुहार,
अनादि-अनवरत-आवेष्ठित हार।
जंगल-
सौम्य-श्यामल-शीतल,
आच्छादित किये भूतल,
मूक ऋषिगण-जीवनाधार,
मानव का प्रथम आधार।
गुफ़ाएं-
गहरे-निविड़-शैलाश्रय
प्रकृति की अनोखी कृति,
ध्यानस्थ भोले महादेव
उठो! करो गरलपान
दग्ध है सकल सुकृति
विकल सत्य! आदिदेव!
त्राहिमाम! त्राहिमाम!
                                        -विजय 

रविवार, 18 दिसंबर 2011

हाइकू-

1-
चपरासी से आई.ए.यस. तक,
रिजेक्ट भये सेलेक्शन मां,
तब खड़ा भये इलेक्शन मां।
2-
ई पब्लिक बड़ी होशियार है,
गुंडन से येका प्यार है,
और उनकै बेड़ा पार है।
3-
वोट मागै जे आवै,
दूध-पूत सब पावै,
इच्छा हमार है।
4-
वोट देवै जे जाई,
लात-घूसा ते पाई,
देह तौ तोहार है।
5-
एक बार जिताय देव,
लाल बत्ती पाय देव,
फिर का तोहार है!
6-
जीतेक बाद मौज़ करब,
अमरीका कै सैर करब,
आये इलक्शन फिर लड़ब!
7-
हम लगायन हम पायन,
यहमां कौन गोहार है?
सांसद-निधि हमार है!
8-
सुरा-सुन्दरी से क्यौ बचा है?
केहुक उज़ागिर केहुक पचा है,
चर्चा ही बेकार है!
9-
चोरकट, चिरकुट सुनत रहब,
जी सर! जी सर! करत रहब,
आदत हमार है!
                                                      -विजय 

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

ज़ोर से जो बज रहा थोथा चना है

ज़ोर से जो बज रहा थोथा चना है।
मौन का अब शोर से ही सामना है।।

हौले-हौले आह भर लो चीखो नहीं,
हिन्द में जनतन्त्र है चिल्लाना मना है।

देखते हो गगनचुम्बी भवन को,
यह शानो-शौक़त हमारे पसीने से बना है।

हर वो हाथ जिसको आज कमल कहते हैं,
रक्तरंजित है गुनाहों से सना है।

लड़कियों की शादियों में जो झुका था,
आज लड़के के लगन में कैसा तना है।

नक़ल करके पास होके साहिबी पायी,
कहीं पर गिड़गिड़ाएं कहीं पर कटखना है।

जश्न चारों ओर है शोर है,
पर न जाने आज क्यों मन अनमना है।
                                                               -विजय

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

हृदय उसका सर्वदा निर्मल रहा है


हृदय उसका सर्वदा निर्मल रहा है।
ईमानदारी का जिसे सम्बल रहा है।।


ईमानदारी और वह भी मुकम्मल,
अरे यारों! यह सभी को खल रहा है।


धर्म जिसके साथ उसको फ़िक्र क्या है,
मौज़ सारी ज़िन्दगी पल-पल रहा है।


जीत में कोई खुशी हासिल न होगी,
जीतने में दांव यदि छल-बल रहा है।


दौड़ता ही रह गया जो ज़िन्दगी भर,
मरने पर भी पांव में हलचल रहा है।


बात क्या है के सरे बाज़ार जो,
खोटा सिक्का सर उठाये चल रहा है।


आँधियों, तूफ़ान से लड़ता रहा वो,
एक दीपक है जो अब भी जल रहा है।।
                                                            -विजय

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

पीड़ा


पीड़ा, अपमान, तिरस्कार,
अकेलापन, बेबसी, अत्याचार
बड़े मुक्तिदायी हैं अग़र बिंध जायें
करते हैं पूरे व्यक्तित्व का परिष्कार।


राम, परशुराम, पाण्डव, विश्वामित्र
प्रताणित होकर ही प्रखर बने
इस मुक्तिदायी पीड़ा से न गुज़रते
तो कौन गाता इनका चरित्र?


सीता अग्नि से भी प्रदाहक
परिस्थितियों में तपकर
सती साध्वियों की आदर्श बनीं
कोढ़ी के साथ कढ़कर ही
सावित्री की यम से ठनी,


निविड़ जंगलों के एकाकीपन ने
लव-कुश को तराशा था
अश्वमेघ का घोड़ा
भरत-शत्रुहन की फ़ौज
उनके लिए तमाशा था।


इन्द्रजित की अमोघ शक्ति को
लक्ष्मण ने सहा था
इस पीड़ा से ही प्रस्फुटित हुई थी
वह प्रचण्ड शक्ति
जो सौमित्र के धनुष से बहा था।


अपमान विभीषण को
अन्दर तक हिला गया
रावण को मौत,
उसको लंका का छत्र दिला गया।


चाणक्य इतिहास के अंधेरे में
ग़ुम हो गये होते,
महानन्द का अपमान अग़र
 चुपचाप सह गये होते।


बाबर बुरी तरह अपमानित होकर
ईरान से भागा था,
इस पीड़ा ने ही उसको
भारत की बादशाहत के लिए साधा था।


इतिहास में एक नहीं
हजारों उदाहरण पढ़े हैं
जिनको पीड़ा का दंश लगा
केवल वे ही बढ़े हैं।।
                                                 -विजय

बुधवार, 30 नवंबर 2011

हर पहचान दोस्ती नहीं होती


हर पहचान दोस्ती नहीं होती।
उनके मिलने से ख़ुशी नहीं होती।।


मिलते हैं तो बातें होती हैं
पर पहले सी दिल्लगी नहीं होती।


प्याज की तरह चेहरे पर तमाम पर्ते हैं,
ऐसे लोगों की मुझसे बन्दगी नहीं होती।


अच्छाई की कद्र ग़र होती,
दुनिया में इतनी भद्दगी नहीं होती।


पढ़ाने वाले अग़र बाशऊर होते,
पढ़ने वालों में ये बेहूदगी नहीं होती।


हर चीज़ अग़र बाज़ार में बिकती होती,
तो कुछ भी बेशकीमती नहीं होती।


रिश्तों को उनका सम्मान मिलता,
तो सती जा के सती नहीं होती।।
                                                                -विजय

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

चाँद के दाग तो न दिखाई देंगे


क्या हुआ जो नज़र कमज़ोर हो चली
चाँद के दाग तो न दिखाई देंगे।
जो पास हैं उनपे तो तवज्जो होगा,
जब दूर वाले साफ़ न दिखाई देंगे।


तेज़ नज़रों के मीन-मेख से क्या पाया यारों,
जो साथ-साथ चलते थे उन्हें गंवाया यारों,
कमज़ोर नज़र अच्छी कम ही देखेगी
सबके नहीं बस अपने सनम देखेगी।


हर अक्स पर झीना पर्दा सा लगता है,
हर शख़्स कोहरे में लिपटा सा लगता है,
हर कली हौले-हौले मुस्काये,
तितलियों का उड़ना मौसिक़ी सा लगता है।


फिर नज़रों को लेकर परीशाँ क्यों हों
उम्र के साथ घटने की मसलहत समझो,
अब वक्त बाहर नहीं अन्दर झांकने का है
औरों की नहीं अपनी कमियां आंकने का है।
                                                                 -विजय

सोमवार, 28 नवंबर 2011

सुख से मानव कभी न सीखे


दुःख का रिश्ता जनम-जनम से
सुख तो आता जाता है,
सुख से मानव कभी न सीखे,
दुःख ही उसे सिखाता है।।


सुख में जीवन उस सरिता सा
जिसमें कोई वेग नहीं,
लहरें तो उठती ही हैं तब,
जब होता अवरोध कहीं।।


अवरोधों से लड़ूँ और जीतूँ
जब भाव प्रबल होता,
दुर्दमनीय तरंगों सा फिर
जीवन और सबल होता।।


गिरकर ही चलना सीखा है
अब तक के हर बालक ने,
प्रथम श्वास के साथ ही रोदन
नियम दिया अनुपालक ने।।


मानव-शिशु ही केवल रोता
ऐसा क्यों? क्या सोचा है?
चिन्तन करो गहन तो देखो
उत्तर बहुत अनोखा है।।


हर प्राणी का कर्म मात्र
अनुवांशिक है, स्वविवेक नहीं,
मानव मात्र कर्म का स्वामी
करे ग़लत या करे सही।।


फिर तो वह ही भुगतेगा
अपने कर्मो का परिणाम,
यही सोच कर रोता है क्या?
कैसे हो शुचिता से काम।।
                                           -विजय

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

एक खुला पत्र नक्सलवादियों के नाम


हे समाज के सच्चे पर अतिबुद्धिवादियों!
जिन आदर्शों के लिए तुम अपना 
और भोले आदिवासियों का खून 
बहाकर पैदा कर रहे हो ज़ुनून,
निर्मम हत्याओं के कलंक का टीका
लगाना तुमने जिनसे सीखा!
कभी उनके आचरण और परिणाम
पर तुमने दिया ध्यान?


वर्ग-संघर्ष, ज़ुल्मी ज़मींदार, बुर्जुआ
जैसे शब्दों से तुम्हें बींधकर
तुम्हारे स्वतन्त्र चिन्तन-शैली का
जिसने किया अपहरण,
वे क्या नहीं कर रहे हैं तुम्हारा शोषण?


तुम उस आग की तरह हो
जिसमें गर्मी बहुत है,
पर प्रकाश नहीं है
और तुम्हारा आदर्श है
प्रकाशित करना न कि जलाना!


दुनिया के किसी देश में, किसी काल में
आर्थिक और सामाजिक बराबरी रही हो
तो मित्र मुझे भी बताओ!
मैं भी तुम्हारे साथ अपने को
होम करने के लिए तत्पर हूँ!


पर भोले-भाले ग्रामीणों को
अपरिपक्व, उधार के दर्शन में
मत तपावो!
मैं जानता हूँ मित्र! तुम सच्चे हो,
पर भटके हो
और यह दर्प कि ‘तुम हटके हो’
तुम्हें बलिदानी बना रहा है।


शोषण का प्रतिकार प्रतिशोषण नहीं,
हिंसा का प्रतिकार प्रतिहिंसा नहीं,
अव्यवस्थाओं का प्रतिकार अव्यवस्था नहीं है मित्र!
एक नयी सामाजिक क्रान्ति का उपक्रम अन्ततः
पुनः एक नये शोषक-वर्ग को जन्म नहीं देगा?


जिसको अपना आदर्श मानकर
एक और अन्धविश्वास के तहत
तुम अपने को होम कर रहे हो,
निष्पक्ष बुद्धि से उनका आकलन करो
तो देखोगे-एक नये परिधान में पुनः
एक शोषक तुम्हारा शोषण कर रहा है।


तुम्हारी भावनाएं अत्यन्त उदात्त हैं,
तुम्हारी पर-पीड़ा-अनुभूति अत्यन्त तीव्र है,
यही अतिरेक तुम्हें भावनात्मक
शोषण का पात्र बनाता है।
परिपक्व होने दो अपनी इन अनुभूतियों को
फिर तुम हिंसा के नहीं, प्रेम के
अजस्र स्रोत बनोगे! बुद्ध बनोगे
और बुद्ध बनने के लिए अपने
संवेगों को सम्यक् करना होता है।।


आपके लिए ही एक ग़ज़ल-


इक मुकम्मिल दर्द का एहसास हो।
फिर आदमी कुछ ज़िन्दगी के पास हो।।


गहन-वन की कन्दराओं में गया,
खोजता था सन्त जो कुछ ख़ास हो।


उम्र भर मैं राह ही देखा करूँ,
उनके आने की ज़रा भी आस हो।


दोस्ती में फ़र्क पड़ सकता नहीं,
दोस्त ग़र पूरी तरह बिन्दास हो।


डूबे गले तक आज दूषित पंक में,
या रब! इन्हें भी सत्य का आभास हो।


वो क्या जियेगा ज़िन्दगी पूरी तरह जो
चालो-चलन, रस्मो-रसम का दास हो।।
                                                                    -विजय

शनिवार, 5 नवंबर 2011

एक अन्धी लड़की की प्रार्थना-


हे परम पिता!
स्वीकारो मेरा अभिवादन!
जो कह रही हूँ, मेरी उत्सुकता है
मत समझना मेरा रुदन!


दिन और रात क्या अलग से दिखते हैं?
कैसा लगता है जब लोग हँसते हैं?
हँसी केवल सुनने की चीज़ है?
या दिखायी भी पड़ती है?
चिड़ियों की चहचहाहट मैंने सुनी है
ये क्या हैं? कैसी होती हैं?


मैंने हाथी और दस अन्धों की कहानी सुनी,
ख़ूब हँसी और ख़ूब रोयी!
मैं भी तो नहीं जानती कि
हाथी कैसा होता है?
फूल, इन्द्रधनुष, मेरी माँ की शक्ल
ये सब कैसे हैं?


मेरी माँ एक सुखद स्वप्न देखती है,
कोई विशाल-हृदय व्यक्ति मरणोपरान्त
अपनी आँख मुझे देगा
और मैं सब देखूँगी!!


हे परम पिता! क्या यह सम्भव है?
क्या ऐसे लोग भी हैं?
मेरी एक ही अभिलाषा है
अपनी माँ की शक्ल देख सकूँ!
मुझे मालूम है तुम भी वैसे ही होगे
हे परम पिता! सुन रहे हो न?
इस अँधेरे संसार में तुम कहीं हो न?
(गारो से भावानुवाद)
                                                              -विजय

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

फूलों की घाटी

पुष्पघाटी की एक अलसायी सुबह
पुष्पगंगा के सलिल पर पौड़कर
मन तिर रहा था कुहरे की परतों पर
अचानक छिछलते हुए पैठ गया अन्दर।


ब्रह्मकमल की भीनी ख़ुश्बू
निःशब्द अतीत की गहराइयों में
खोलने लगा अवगुण्ठन इस
अजर अमर आत्मा के।


फिर देखा निर्निमेष आँखों से
द्रौपदी का वह मूक उपालम्भ
गन्धर्वों का वह प्रचण्ड शौर्य
जिससे हार मैं खड़ा हूँ
आज दर्प दलित भीम
ला न पाया पुष्पोपहार
और गया हार!


कितना अवसाद कितनी कुंठा
पर फिर भी आत्मसम्मान
इस अकेले का राजशक्ति से
हारने का अभिमान
पर हाय! यह आत्मतोष भी
न भाग्य में बदा था!


अर्जुन के भ्राता को छोड़ दिया ससम्मान
और मैं अवसाद के पुष्प लिए
द्रौपदी के सम्मुख खड़ा था,
आत्मघात भी न कर पाया यह कापुरुष
जबकि मेरे हाथ में गदा था।
                                                                  -विजय

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

आज मौसम फिर बदलने लग गया


आज मौसम फिर बदलने लग गया।
शान्त मन फिर से मचलने लग गया।।


धूप कल तक तो बहुत प्यारी लगी,
खुला आँगन आज खलने लग गया।


घर हमारा पत्थरों का था बना,
गर्म सांसों से पिघलने लग गया।


मेरी उंगली थाम के जो चलता था,
उसको थामे कोई चलने लग गया।


डूबता सूरज समन्दर में दिखा,
चाँद बाहर को उछलने लग गया।


हर किसी ने क्यों मेरी तारीफ़ की,
हर कोई मुझसे ही जलने लग गया।


बहुत चाहा प्यार फिर भी न मिला,
दर्द से ही दिल बहलने लग गया।


बहुत चाहा उम्र को रोके रखूँ,
हर एक पल, पल-पल फिसलने लग गया।
                                                                -विजय

गुरुवार, 20 अक्तूबर 2011

महाकाश में एक अकेला

महाकाश में एक अकेला,
विचर रहा हो पाँखी जैसे।
घने तिमिर में रश्मि खोजता,
भटक रहा हूँ मैं भी वैसे।।


अपने ही द्वन्द्वों से अब तक,
जूझ रहा हूँ एक अकेला।
आस-पास जो घटित हो रहा,
वह तो है दुनिया का मेला।।


ऐसा कोई खेल नहीं है,
जिसको मैंने कभी न खेला।
दुनिया के इस रंगमंच पर,
गुरू बना मैं, बना मैं चेला।


सुख-दुःख के इस धूप-छाँव को,
मैंने एकाकी ही झेला।
एक दिवस इस महाशून्य में,
खो जाऊँगा मैं भी वैसे।
महाकाश में एक अकेला,
विचर रहा हो पाँखी जैसे।।
                                             -विजय

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

डायरी के पन्नों से : अमरनाथ यात्रा

     युवजन चारण संस्था के मूलमन्त्र चरैवेति-चरैवेति से अनुप्राणित मस्तक पर वृहस्पति, हृदय में शुक्र, बाहों में मंगल-सूर्य एवं पैरों में शनि के प्रभाव से अभिप्रेरित कुछ फक्कड़-घुमक्कड़ निकल पड़े अमरनाथ यात्रा पर। परन्तु इतने ग्रहों का प्रभाव तो व्यर्थ ही जाता अगर हम नियत कार्यक्रम को सम्पादित करके ही वापस आ जाते। दिल्ली के युवा आवास में ही नियत कार्यक्रम को ठेंगा दिखाने की योजना हमारे पूर्व परिचित और इस कार्यक्रम के मीरे कारवां आलोक दा के साथ हमने बना ली थी। हमारे साथ शान्ति निकेतन युवा शाखा के अन्य और सदस्य थे जिनमें महिलाएं भी थीं। हमारी योजना अमरनाथ यात्रा पूरी करके बालटाल के तरफ से जोजिला पार करके ड्रास कारगिल लेह लद्दाख होते हुए लाहौल स्पीति की तरफ से कुल्लू निकल जाने का था। अभी-अभी कारगिल युद्ध समाप्त हुआ ही था और कारगिल में अभी भी बमबारी जारी थी। हमें डर था कि कार्यक्रम जानकर महिलाएं कहीं अपने वीटो पॉवर का प्रयोग न कर दें। अतः पूरा प्रोग्राम केवल पुरुषों तक ही सीमित रखा गया। कारगिल यात्रा-वृत्तान्त किसी और अवसर के लिए छोड़कर हम केवल आपको बर्फ़ानी बाबा के दर्शन के लिए ले चलते हैं।
     दिनांक 26 जुलाई अपराह्न हम लोग अपने पहले पड़ाव पंचकुला युवा आवास के लिए चल पड़े। रास्ते में पीपली युवा आवास रुक कर हमने कुरुक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण के गीता के उपदेश, जहां पर अपने अन्तःकर्णों से अभी भी सुनाई पड़ता है, का अनुश्रवण किया। पंचकुला पहुँचते-पहुँचते रात के लगभग दस बज गये थे परन्तु वहां के विंग कमाण्डर शर्मा जी अपनी चिर-परिचित मुस्कान एवं सुहृदयता के साथ बाहें खोलकर लिपट गये। भाभी जी ने तुरन्त खाना लगवाया और शर्मा जी रसोइए के बावजूद बाल-बच्चे समेत रोटियां सेकने लगे। कहां मिलेगा यह अपनापन? पंचकुला का युवा आवास अत्यन्त भव्य, शान्त, गरिमामय वातावरण में घघ्घर नदी के किनारे फूल-पौधों से सजा हुआ परिसर मन को बांधने लगता है। पर हम बंधने वाले कहां? रात्रि-विश्राम एवं प्रातः जलपान के पश्चात् हम निकल पड़े अपने दूसरे पड़ाव अमृतसर स्वर्ण मन्दिर की ओर। रास्ते में चण्डीगढ़ के रॉक गार्डन में शहर निर्माण के समय टूटे-फूटे चीनी मिट्टी के वर्त्तनों से निर्मित कलाकृतियों को देखकर कलाकार के सहज सृजनात्मकता को नमन् किया।
     स्वर्णमन्दिर देखकर तो आँखें खुली की खुली रह गईं। इतना भव्य, इतना शान्त, इतना गरिमामय, इतना स्वर्णमण्डित और इतनी सेवा भावना, इतनी स्वच्छता कहीं अन्यत्र अत्यन्त दुर्लभ है। सिक्खों की सेवा-भावना देखकर मन अनायास ही गुरुनानक देव से होता हुआ गुरुगोविन्द सिंह जी तक के दसों गुरुओं के प्रति श्रद्धावनत हो गया। बस एक ही अनुत्तरित प्रश्न मन को बार-बार कचोटता रहा कि इतनी सेवा-भावना, इतनी सुचिता फिर आतंकवाद की बर्वरता कैसे? अमृत सरोवर के स्वच्छ एवं शान्त जल में हरमन्दिर साहब की सुवर्ण आभा एक अलौकिक सौन्दर्य का सृजन कर रही थी। अषाढ़ की चतुर्दशी का चाँद अमृत सरोवर में अमृत वर्षा कर रहा था। संगमरमरी परिक्रमापथ पर बैठकर हम सभी ने मन्त्रमुग्ध से इस दृश्य का भरपूर रसास्वादन किया। चौबीस घण्टे चलने वाले लंगर में प्रसाद छकने के बाद श्री गुरु रामदास मन्दिर में विश्राम हेतु हम लोग जब लौटे तो अनायास ही मन मुड़-मुड़ कर हरि मन्दिर साहब की छटा देखने के लिए हमें विवश कर रहा था। दूसरे दिन 28 जुलाई को हम अमृतसर के दुर्गानी मन्दिर के दर्शन के पश्चात् गये जलियावाला बाग। अपने को सभ्य एवं समस्त संसार को असभ्य कहने वाले अंग्रेजों की पशुता की गाथा वहां के एक-एक ईंट-पत्थर रो-रोकर सुना रहे थे। अत्यन्त अभिजात्य वर्ग के सभ्यता की यह  परिभाषा मन को तब से आज तक मथे जा रही है। छद्म! छद्म! बार-बार यह शब्द हृदय में गुंजित हो रहा है।
     अमृतसर से जम्मू की यात्रा में प्रत्येक सहयात्री नितान्त अन्तर्मुखी था। लगता था कि जलियावाला बाग की त्रासदी प्रत्येक अपने अन्तर्मन में भोग रहा था। जम्मू में रघुनाथ मन्दिर में स्फटिक शिवलिंग के दर्शन से मन पुनः स्फटिक की भांति निर्मल हुआ। रात्रि विश्राम जम्मू स्टेडियम में खुले आसमान के नीचे करनी पड़ी क्योंकि अमरनाथ यात्री को सुबह चार बजे काफ़िला बनाकर जाने की अनुमति थी। सुरक्षा की दृष्टि से सरकार ने बहुत ही सतर्क प्रबन्ध किया था। पर हम बंधकर चलने वाले यात्री थे ही नहीं। जहां से वैश्णव देवी का रास्ता अलग होता था वहीं से हमने काफ़िले को सलाम किया और पहुँच गये कटरा माता कि दर्शन के लिए। रात्रि विश्राम की व्यवस्था करके हम तुरन्त वैश्णव माता की तेरह किमी. की चढ़ाई के लिए निकल पड़े। रास्ते में गर्भगृह की सकरी, घुमावदार गुफा से पार होकर हम पहुँच गये देवी के मन्दिर। धर्म की किंवदन्ती एवं इतिहास में लिपटा यहा रहस्यमय स्थान एक सकरी सी गुफा, जिसमें अनवरत पानी बहता रहता है, में स्थित है। महाकाली, महालक्ष्मी एवं वैश्णव देवी यहां पत्थर पर तीन उभारों (पिण्डियों) के रूप में पूज्य हैं। इनके दर्शन के उपरान्त तीन किमी. दूर स्थित भैरव के दर्शन का विधान है। कटरा से वैश्णव देवी मन्दिर तक यात्रियों को खाने-पीने, विश्राम एवं दवा-दारू का पर्याप्त प्रबन्ध सरकार तथा निजी व्यापारियों ने कर रखा है। पहले वैश्णव देवी का रास्ता अत्यन्त दुर्गम था एवं यात्री को धार्मिक लाभ के साथ-साथ दुर्गम चढ़ाई उतराई का रोमांच भी होता था। यात्रा सुगम हो जाने से वृद्ध एवं रुग्ण तीर्थ-यात्री के लिए भी यह अगम नहीं रहा।
     वापस कटरा आकर रात्रि-विश्राम के पश्चात् हम निकल पड़े पटनीटॉप के लिए। पटनीटॉप जम्मू-कश्मीर मार्ग पर देवदारु वनों से आच्छादित एक अत्यन्त ही रमणीय स्थल है। यहां का युवा आवास घने जंगल में लकड़ी का बना एक दो मंजिला मकान है। जाड़ों में यहां तीन-चार फिट बर्फ़ पड़ी रहती है। यहां से 19 किमी. दूर सरोवर से सूर्यास्त का मनोरम दृश्य मन पर एक अमिट छाप छोड़ जाता है।
     दूसरे दिन, इसके पहले कि अमरनाथ यात्रियों के काफ़िले में हम लोग पुनः फंस जायें, निकल पड़े श्रीनगर के लिए। काँजीगुण्ड में खाना खाकर क्रिकेट के सस्ते बल्ले खरीद कर हम लोग पहुँचे श्रीनगर। जो पिछले कुछ सालों के आतंकवाद से काफ़ी श्री हीन हो चुका था। एक-एक यात्री के लिए टूट पड़ते हाउसबोट व होटल मालिक इस बात के गवाह थे कि सबसे बड़ा धर्म रोटी है। वहां के लोगों, ख़ासकर युवकों से बातें करने पर हमें एहसास हुआ कि आतंकवाद केवल राजनीतिक ही नही है, कहीं पर कश्मीरियों का मन अन्दर से आहत भी है।
     श्रीनगर घूमने का सबसे अच्छा तरीक़ा शिकारे से घूमना ही है। डल लेक, नगीनलेक एवं झेलम नदी से निकली तमाम नहरें शहर के लगभग हर दर्शनीय स्थल तक जाती हैं। निशात बाग, चश्माशाही, चार चिनार, हज़रत बल, शंकराचार्य और थोड़ी दूर पर क्षीर भवानी अत्यन्त ही सौम्य और शान्त स्थल हैं। शिकारे पर बैठकर पानी में हौले-हौले तिरते हुए, चप्पू के लयबद्ध छप्-छप् आवाज़ पर मन धीरे-धीरे शान्त होता हुआ ध्यानस्थ हो जाता है। समय मिनटों-घण्टों के टुकड़ों नहीं वरन् काल के अनन्त प्रवाह सा आभासित होने लगता है। शिकारों पर बैठकर फूल बेचती किशोरियां या किसी जलीय पौधे की वायुवीय शाखा पर बैठकर मछली पर एकाग्र ध्यान लगाए स्माल ब्लू किंगफ़िशर, विशालकाय चिनार और झील के नीचे पानी में प्रतिबिम्बित बादल के सफ़ेद गोले, सब उस असीम के धागे में पिरोये हुए समय की सीमा-बन्धनों को ध्वस्त करते हुए परिलक्षित होते थे। कश्मीर का नैसर्गिक सौन्दर्य किसी सौम्य, सुन्दर, ध्यानस्थ सुमुखी सा प्रतीत होता है। अत्यन्त मनोरम पर कहीं उच्छृंखलता नहीं, कहीं चपलता नहीं, आभिजात्य से भरपूर।
     श्रीनगर में दो रातें बिताने के बाद हम निकल पड़े श्री अमरनाथ यात्रा पर श्रीनगर से पहलगांव एवं पहलगांव से  चन्दनवाड़ी की यात्रा श्री अमरनाथ के कल्पित चित्र में रंग भरने में बीत गई। अमरनाथ यात्रा की एक विशेषता हमने पाई कि जगह-जगह स्वयंसेवी संगठनों ने लंगर एवं रात्रि-विश्राम के लिए निःशुल्क कम्बल और टेण्ट की व्यवस्था कर रखी थी। इन आयोजनों में अत्यन्त प्रेम-आदर एवं भक्ति से स्वयंसेवक बन्धु सेवा-भाव से अपना कार्य सम्पादित कर रहे थे। मेरा मत है कि इस प्रकार के सेवा-आयोजनों की सीख हिन्दू धर्म को सिख धर्म से मिली होगी और इन सेवा-संगठनों में सिखों की बढ़-चढ़ कर भूमिका भी थी। भारत वर्ष में जो लोग एक धर्म व एक संस्कृति की बात करते हैं उन्हें अमरनाथ यात्रा पर अवश्य जाना चाहिए।
     चन्दनवाड़ी में भोजन, रात्रि-विश्राम, सुबह की चाय एवं भरपूर जलपान करके हम अपना सामान अपनी पीठ पर लादकर निकल पड़े अगले पड़ाव, 11 किमी. दूर स्थित शेषनाग की ओर। इस यात्रा में पिट्ठू घोड़ों एवं पालकियों पर सवार होकर आप यात्रा कर सकते हैं, परन्तु जो आनन्द और अनुभूति पैदल-यात्रा करने में मिलती है वह अन्य साधनों से असम्भव है।
     शेषनाग हिमाच्छादित शिखरों से घिरी एक प्राकृतिक झील है जहां पर कहते हैं कि भगवान शंकर ने अपने सर्प को त्याग दिया था। धवल श्रृंगों के बीच नीलाभ जलराशि एक अद्भुत सौन्दर्य का सृजन करती है। श्रद्धालुजनों द्वारा संचालित भण्डारों में भरपूर भोजन एवं समुचित रात्रि-विश्राम के बाद दूसरे दिन प्रातः ही हम तैयार हो गये अपने अगले पड़ाव पंचतरणी के लिए। 4600 मी. की ऊँचाई पर महागुनस दर्रा इस यात्रा का सर्वाधिक ऊँचा स्थान है। ऑक्सीजन की कमी और सीधी चढ़ाई शिवभक्तों को उनके संकल्प से विचलित नहीं कर पाती और धीरे-धीरे ऊँ नमः शिवाय के महामन्त्र की डोर पकड़ सबल-निर्बल, स्त्री-पुरुष, सुडौल-विकलांग सब पहुँच जाते हैं दर्रे के पार। फिर तो वहां से उतराई एवं घास तथा फूलों से लदे पांच धाराओं द्वारा सिंचित पंचतरणी आने में देर नहीं लगती।
     प्रातः केवल 6 किमी. पर बर्फ़ानीबाबा के दर्शन की उत्कण्ठा यात्रियों के पैरों को स्वचालित कर देती है। उत्साह से भरे यात्री हर हर महादेव और बाबा अमरनाथ की जय के जयघोष से हिमशिवलिंग के दर्शन के लिए कमान से छोड़े तीर की भाँति चल पड़ते हैं। अमरनाथ के पहले कई हिमनद पार करके एवं अमरगंगा में स्नान करके यात्री मन एवं शरीर से 100 फिट लम्बी एवं 150 फिट चौड़ी गुफ़ा में पंक्तिबद्ध दर्शन के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। अन्त में भक्त की आकांक्षा पूरी होती है और ठोस बर्फ़ से बना शिवलिंग देखते ही आह्लाद एवं विस्मय मिश्रित श्रद्धा-भक्ति से यात्रियों का अन्तर्मन बाबा अमरनाथ की अमरगाथा के प्रतीक कबूतरों के झुण्ड की भाँति अनन्त आकाश में बिहार करने लगता है।
                                                                                   -विजय

बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

डायरी के पन्नों से : फूलों की घाटी

       ख़याली पुलाव तो वर्षों से पका रहा था। फूलों की घाटी की रंगीन कल्पनाओं में मन छिछली खाते-खाते अक्सर डुबकी मार जाता था। कल्पनाओं के कैनवस पर अपने मन-पसन्द चित्र बनाते-बनाते अक्सर मैं फूलों की घाटी में विचरण किया करता था। फिर आख़िर वह शुभ घड़ी आ ही गई। अन्ततः चार फक्कड़ घुमक्कड़ निकल ही पड़े। केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुण्ड साहिब एवं फूलों की घाटी के धार्मिक-आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक सुषमा का पान करने के लिए।
     अपनी सूक्ष्म आवश्यकताओं का पुनः सूक्ष्मीकरण करने के बाद अत्यावश्यक सामानों का पिट्ठू लेकर हम लोग चल दिये उत्तराखण्ड दर्शन हेतु। बलरामपुर से लखनऊ एवं लखनऊ से हरिद्वार की यात्रा तो कट गई इस कल्पना लोक में अपने मन पसन्द रंग भरने में, तन्द्रा टूटी तो अपने को खड़ा पाया पतितपावनी गंगा के श्री चरणों में हरि की पैड़ी पर। हल्की बारिश में भीगते हुए हरि की पैड़ी का अनवरत छिप्र प्रवाह उसी गति से हमें मानव-सभ्यता के आदिम इतिहास की ओर ले जा रहा था जब हमारे पूर्वज इसकी कल्याणकारी शक्ति से अभिभूत हो इसके किनारे बसते चले गये थे। हरिद्वार में ही मालूम हो गया कि केदारनाथ का रास्ता भू-स्खलन के कारण बन्द है। परन्तु हम तो केदारनाथ जाने का निश्चय करके आये थे और निश्चय दृढ़ था अतः मनसा देवी की चढ़ाई-उतराई को पूर्वाभ्यास स्थल की तरह प्रयोग करने का निश्चय हुआ, देवी-दर्शन का नाम तो बोनस था। मनसादेवी की चढ़ाई तो सीढ़ियों की चढ़ाई है और दुरूह न होने पर भी अन्यमनस्क मांशपेशियों के लिए कष्टकर तो है ही। उसी रात अलकनन्दा एवं मन्दाकिनी के संगम स्थल रुद्रप्रयाग में अलकनन्दा के किनारे कुछ देर बैठने पर लगा कि अलकनन्दा एकाकीपन से तंग आकर मन्दाकिनी से मिलने और त्वरित होकर, रुकते-रुकते पत्थरों पर उछलती हुई, मिलन सामीप्य जानकर उमंग से जयघोष करती जा रही है।
       रुद्रप्रयाग से केदारनाथ एवं बद्रीनाथ का रास्ता अलग हो जाता है। अपने पूर्व कार्यक्रम के अनुसार हम लोग अलकनन्दा पार करके मन्दाकिनी के किनारे-किनारे पर्वतों की व्यथा-कथा सुनते आगे बढ़े। केदारनाथ से 56 किमी. पहले बस बेबस हो गई-रास्ता बन्द। हम लोग कुण्ड एवं ऊखीमठ के बीच छोड़ दिये गये। सड़क पर मोमजामा ताने एक दूकानदार कुछ कमा लेने की आशा लगाये पानी और आँधी से संघर्षरत था। कुछ चाय-पकौड़े खाकर अपना अतिरिक्त सामान उस अनजाने व्यक्ति को सौंप, ऊखीमठ से मन्दाकिनी की उतराई एवं मन्दाकिनी पुल को पारकर गुप्तकाशी की सीधी चढ़ाई पार करके हम पहुँचे गुप्तकाशी की अत्यन्त मनोरम एवं देवर्षि नारद की तपस्थली पर। दिन के एक बज रहे थे अतः खाना खाकर फिर चल पड़े केदारनाथ बाबा की जयघोष बोलकर। जगह-जगह रास्तों को पारकर फाण्टा होते हुए दीपक जलने के बाद पहुँचे सोन प्रयाग। 36 किमी. चल चुकने एवं पूर्ण अन्धकार हो जाने के कारण यहीं रात्रि विश्राम की ठानी। धुप अँधेरे, घनघोर बारिश, रजाई गद्दों में पिस्सुओं की पूरी फ़ौज का सामना करते हुए रात आँखों में कट गई। आराम से कोई सोया तो भास्कर दीक्षित जिसके रक्त में कदाचित कोई पिस्सूमार ज़हर ज़रूर रहा होगा। सुबह उठकर सारा बदन खुजलाते हुए सोनप्रयाग में चाय पीने तक की हिम्मत न करके काफ़ी द्रुतगति से बढ़ चले हम, गौरीकुण्ड के तप्तकुण्ड की ओर इस आशा में कि पिस्सूदंशित इस चोले को कुछ तो आराम मिलेगा ही मिलेगा, गर्म जलधारा में। गौरीकुण्ड जहाँ पर कुंवारी पार्वती ने तपस्या की थी भोले शंकर के लिए। जो सोनप्रयाग से 7 किमी. दूर स्थित है। आनन-फानन में भागते-दौड़ते (पिस्सू पॉवर से) हम सीधे कुण्ड में गोता लगा गये। पानी काफ़ी गरम, परन्तु आरामदायक था। पिस्सुओं की क्या गति हुई होगी यह वही जाने परन्तु हम लोग तो बिल्कुल थकान एवं पिस्सू विहीन हो गये उस परम् पवित्र कुण्ड में स्नान करके। पूजन एवं जलपान के बाद फिर मौज़ से चल पड़े बाबा केदारनाथ की दुर्गम चढ़ाई पर। नीचे गरजती हुई मन्दाकिनी एवं दुर्लभ पुष्पों से हाय! हेलो! करते हुए तथा विभिन्न साफ़-सुथरी चट्टियों पर चाय-पानी छानते हुए शाम पाँच बजे हम पहुँच गये केदारनाथ की घाटी में जहाँ मन्दाकिनी, महोदधि, छीरगंगा, स्वर्गारोहण एवं सरस्वती नदियां आदि देव के पाँव पखारती हुई सारे भेद-भाव भूलकर एक हो जाती हैं।
      भीषण थकान और सर्दी से त्रस्त जब हम पण्डा जी के यहाँ पहुँचे तो उनके सहृदय आतिथ्य एवं साफ-सुथरी रजाइयों के अन्दर बैठ कर चाय की गर्म प्यालियों के आनन्द ने जीवन में पहली बार यह सोचने को विवश किया कि क्या किसी होटल या टूरिस्ट लॉज में यह आतिथ्य सम्भव है? घर के किसी बड़े बुज़ुर्ग की भांति हमारी सारी आवश्यकताओं पर नज़र रखते हुए घर के सब लोगों का कुशल समाचार पूछकर एवं रात्रि भोजन की भी बिना रजाई से निकले हुए खाने की व्यवस्था करके पण्डा जी ने रात्रि-विदा ली। दूसरे दिन प्रातः श्री केदारनाथ का विधिवत् पूजन-दर्शन कराकर एक विद्वान् गाइड की भाँति वहां के धार्मिक इतिहास से पण्डा जी ने परिचय कराया। आदिगुरु शंकराचार्य की समाधि-स्थली एवं अन्य स्थलों को देख हम वापसी को चल पड़े। रात होते-होते गुप्तकाशी पहुँचकर विश्राम किया। दूसरे दिन रुद्रप्रयाग और वहां से जोशीमठ की यात्रा बस से निर्विघ्न समाप्त की। प्रातः स्नानादि क्रिया से निवृत्त होकर बस अड्डे पहुँचने पर मालूम हुआ कि हम कुछ मिनट देर से पहुँचे हैं, अब दूसरी बस तीन घण्टे बाद ही मिलेगी। इतनी देर बैठकर प्रतीक्षा करना पैदल चल देने से ज्यादा कष्टकर लगा। अतः जोशीमठ से सारा सामान पीठ पर लादकर विष्णुप्रयाग के लिए चल दिए। विष्णुप्रयाग में सार्वजनिक निर्माण विभाग की ट्रक ने तरस खाकर लिफ्ट दे दी और पहुँच गए पाण्डुकेश्वर फिर वहां से हनुमान चट्टी पुनः पदयात्रा। हनुमान चट्टी पर बस मिल गई जो दोपहर तक बद्रीनाथ पहुँच गई।
       तप्तकुण्ड में स्नान कर देवदर्शन एवं भोजनोपरान्त हम चल दिए माणा गांव जो चीन-भारत सीमा का सीमान्त गांव है। वहां पर भीमपुल, व्यासगुफ़ा एवं गणेश गुफ़ा का दर्शन करके पुनः अपने विश्रामस्थली पहुँचकर भोजनादि के पश्चात् तुरन्त सोने का कार्यक्रम बना क्योंकि प्रातः पाँच बजे ही श्री बद्रीनाथ का निर्वाण-दर्शन का निश्चय था। निर्वाण-दर्शन एवं श्रृंगार-दर्शन करके जब वापस जाने का उपक्रम किया तो पता चला कि गढ़वाल मोटर्स ओनर्स यूनियन ने अपनी मांगों के लिए चक्काजाम का आह्वान किया है। बनारस के एक मास्टर साहब अपने कुछ मित्रों के साथ एक जीप पर सवार अपनी वापसी की तैयारी कर रहे थे। तुरन्त बनारसी बाबू से ससुरारी रिश्ता जोड़ा तो वे बहुत ख़ुश हुए। इसलिए नहीं कि रिश्ता ससुरारी था वरन् इसलिए कि उनकी जीप धक्का परेड थी और हम चार मुसटण्डों को देखकर उन्हें आशा बँध गई थी कि हम लोग अपने बुल पॉवर का प्रयोग कर गाड़ी स्टार्ट तो करा ही देंगे। सहकारी भाव विकसित हुआ और लगे हम जीप धकेलने। पूरे चालीस मिनट धक्का देने पर कहीं जाकर जीप स्टार्ट हुई और हम बद्रीनाथ की ठंडक में हो गये सराबोर पसीने से। परन्तु अभी हमारे कष्टों का अन्त कहां था? जीप को वापस भेज दिया बद्रीनाथ छूटे हुए बनारसियों को वापस लाने के लिए और जब दो घण्टे वह नहीं लौटी तो अपने भाग्य को कोसते हुए पुनः चढ़ाई चढ़कर पहुँचे वहीं जहां से चले थे। पता चला कि चक्का जाम में पुलिस वालों ने रोक लिया है जीप को। अन्ततः ग्यारह बजे हड़ताल वापस हुई और हम जीप में लटक कर वापस हुए गोविन्दघाट के लिए।
       गोविन्दघाट में रहने के लिए केवल एक गुरुद्वारा है। वहीं पर अपना सामान जमा करके लंगर में प्रसाद छके और चल दिए दो विदेशी सहयात्रियों के साथ घघरियाघाट के लिए। रास्ता कठिन एवं प्राकृतिक सुषमा के लिहाज से सामान्य था। भ्यून्दर नदी के किनारे-किनारे सतत् चढ़ाई पार करके जब हम घघरिया पहुँचे तो अँधेरा हो चुका था। जल्दी-जल्दी कम्बल वगैरह लेकर जिस कमरे में सोने की जगह मिली तो देखा कि वहां पहले से चालीस युवक-युवतियां जो बड़ौदा के डाल्फिन क्लब के मेम्बर थे अखाड़ा जमाए थे। ख़ैर हम ठहरे पुराने घुसपैठी और अन्ततः जगह केवल कमरे में ही नहीं, अन्य वासियों के दिल में भी बना ली। दूसरे दिन फूलों की घाटी का कार्यक्रम था पर बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।
       निश्चित हुआ कि आज हेमकुण्ड साहिब भीगते हुए चला जाय क्योंकि फूलों की घाटी में छायांकन के लिए धूप की आवश्यकता होगी और हेमकुण्ड साहिब में धूप न भी हुई तो कोई बात नहीं। पर अभी एक या डेढ़ किमी. ही चढ़े थे कि धूप निकल आई और हेमकुण्ड साहिब में तो मौसम बहुत ही अच्छा रहा। हेमकुण्ड साहिब का रास्ता अति दुर्गम है पर रास्ते में भोजपत्र के जंगल, बुरांश के फूल और बह्मकमल की ख़ुश्बू थकान के आभास को भी पास नहीं आने दे रहे थे। हेमकुण्ड एक दिव्य एवं मनोरम सरोवर है। यह लक्ष्मण की तपस्थली है एवं गुरुगोविन्द सिंह जी ने गुरुग्रन्थ साहिब में इसको अपने पूर्व-जन्म की तपस्थली बताया है। पहले इसको लक्ष्मणकुण्ड कहा जाता था पर अब सिख धर्मावलम्बियों के काफ़ी जाने से  उसे हेमकुण्ड के नाम से जाना जाने लगा। लक्ष्मणकुण्ड साल के आठ महीने जमा रहता है। अभी भी बर्फ़ की चट्टाने इसमें तैर रही थीं। उस बर्फ़ीले पानी में घुसकर तीन डुबकियां लगाईं तो लगा कि शरीर जम गया।
       इस जगह की शोभा सचमुच अविस्मरणीय है। नहाकर उस ठंडक में गुरुद्वारे का कड़ाह प्रसाद एवं गर्मागर्म ग़िलास भर चाय अमृतपान से कम आरामदायक नहीं था। बगल में ही लक्ष्मण जी का एक अति प्राचीन मन्दिर है, वहां शेषनाग के अवतार उस विलक्षण भ्रातृ-प्रेमी का दर्शन कर हम कृतार्थ हुए।
       मैं तो नहा धोकर कब का फ़ारिग हो चुका था परन्तु मेरा अधोवस्त्र अभी भी नहा रहा था, परन्तु अकेले नहीं, किसी की कमर पर चढ़कर। आज उसे समाज-सेवा की सूझी थी अतः कई लोगों को नहलाने के बाद भी अभी व्यस्त था। अनुनय-विनय करके उसे प्राप्त किया एवं गीला ही लेकर नीचे खिसका। सीधी उतराई पर शरीर पैरों से आगे चलने की हठ कर रहा था, बहुत समझा-बुझाकर उसे पैरों के साथ चलने पर राज़ी किया।
       दूसरे दिन सुबह फूलों की घाटी के लिए मौसम अच्छा हो गया। घाटी घघरियाघाट से तीन किमी. है। बीच में कई बर्फ़ के पुल एवं कई भोजपत्र के जंगलों से होते हुए पुस्पावती नदी के किनारे-किनारे जब फूलों की घाटी पहॅँचे तो उस प्राकृतिक सुषमा का पान किया जो अपने में अद्वितीय तो है ही पर निहायत शालीन। गन्धमादन पर्वत पर मादक गन्धों से मन द्रौपदी और पाण्डवों के साथ-साथ चलने लगता है। कामथ गिरि (Commet) का भव्य रजत रूप सुन्दर पुष्पों एवं चंचल पुष्पगंगा को अहर्निश निहारता रहता है। आजकल की चमक-दमक, लक-दक एवं दिखावे की दुनिया में ख़ूबसूरती आंकने का लोगों का पैमाना अक्सर ओछा होता है, अतः वहां पर जाकर यह कहने वाले काफ़ी मिलते हैं कि फूलों के अलावा क्या है यहां? पता नहीं और क्या देखने जाते हैं लोग।
       दिनभर फूलों की सुगन्ध का आनन्द लेते हुए और छायांकन करते हुए हम घूमते रहे घाटी में। एक गुजराती सज्जन ने पराठे खिलाए और कहा कि अच्छा है ये फूल गुजरात में नहीं होते वर्ना इनकी मदमाती सुगन्ध वहां की दारू इण्डस्ट्री ही बन्द करवा देती। शायद दारू का व्यापार था उनका।
       फूलों की घाटी से लौटकर घघरिया घाट एवं पुनः उन्हीं जानी पहचानी चढ़ाइयों की उतराई नापते हुए हम गृहोन्मुख हुए तो सब-के-सब चुप, अपने से बतियाते एवं नवोदित सौन्दर्य-बोध की गहराइयों को थहाते, बहुत कुछ नया देख पाने की खुशी और उसके दूर जाने के दुःख का एक साथ अनुभव करते जब हम नापे हुए कदमों का हिसाब लगाने बैठे तो पता चला कि फ़कत 170 किमी. की पदयात्रा करके चारो बुद्धू घर को लौटे हैं।
                                                                                            -विजय

रविवार, 25 सितंबर 2011

क्यों भाई! क्या गये हार?

भाग्य, प्रारब्ध, व्रत, त्योहार
क्यों भाई! क्या गये हार?

ज्योतिषी, नज़ूमी, पादरी, पाधा,
ये सब कर्मशील जीवन के बाधा।

ग्रह, नक्षत्र, साइत विचार,
डरे हुए मानुष का मनोविकार।

जीवन सतत प्रवाह है, साधना है,
सतत कर्म ही आराधना है।

नाम सम्मान, पैसा, समर्थन,
नाग के पहरे में गड़ा हुआ धन।

पाओगे नहीं! डस लेगा,
फ़कीर को कोई क्या देगा।

फ़कीरी अपनाओ, पा जावो निर्वाण,
नहीं तो बहुत मुश्किल से निकलेंगे प्राण।।
                                                                 -विजय

शनिवार, 17 सितंबर 2011

मिटे न मन की प्यास


सावन भादों जमकर बरसे, बहे पवन उनचास।
जल ही जल है, सृष्टि तरल है, मिटे न मन की प्यास।।


झूठ फ़रेब और सच्चाई, यह तो युग-युग से है भाई।
भोले करते गरलपान हैं, राम जायं वनवास।।


मन को रोको, आगे देखो, मत पलटो इतिहास।
आगे बढ़ना धर्म हमारा, जब तक तन में सांस।।


जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।


राम डूब गये, सीता धंस गईं, कृष्ण तीर के फांस।
पाण्डव गल गये बचा न कोई, मन में फिर भी आस!


बदला युग तो बदले सब कुछ, बदले रीति-रिवाज।
सीता भोगे दंश विरह का, सुर्पनखा रनिवास।।


बदला है युग फिर बदलेगा, हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।
बार-बार का ठगा हुआ मन, कर ले फिर विश्वास।।
                                                                                                                       -विजय

रविवार, 11 सितंबर 2011

जीवन-सार


जीवन गतिशाली रहे, मन आनन्द हिलोर।
तन भी लय पर साथ दे, ईश दिखें चहुँ ओर।।


जो भी अपने पास है, वही लगे पर्याप्त।
हर हालत सन्तोष हो, रहे अनुग्रह व्याप्त।।


सुख-दुःख दोनों का वरण, मन में हो समभाव।
हर रस का आनन्द है, सबका अलग प्रभाव।।


ईर्ष्या से मन मुक्त हो, पर सुख में आह्लाद।
हो निन्दा से मन विरत, स्व-चिन्तन में स्वाद।।


हर क्षण उसका ध्यान हो, अर्पित हो हर कर्म।
सब में वो ही व्याप्त है, सबकी सेवा धर्म।।


जिसको जो अभिनय मिला, करे उसे मन लाय।
लक्ष्य हो जीवन मुक्ति का, उसका यही उपाय।।
                                                                          -विजय

रविवार, 4 सितंबर 2011

जन-जन का आधार चाहिए

काम अगर करना हो कुछ भी,
जन-जन का आधार चाहिए।


ध्यान नहीं लगता निर्गुण में,
रूप एक साकार चाहिए।


सुख में भी मन क्यों उदास है?
मन को निश्छल प्यार चाहिए।


बहुत संजोए सपने हमने,
अब उनको आकार चाहिए।


सब कुछ सह लेने वालों को,
गीता की ललकार चाहिए।


लड़की बिन्दी को तरसे है,
लड़के को तो कार चाहिए।


गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
उनको आँखें चार चाहिए।


सम्बन्धों की उच्छृंखलता को,
थोड़ा सा आचार चाहिए।


अब तक जो सड़कों पर सोते,
उनको भी आगार चाहिए।


निर्वस्त्रों को वस्त्र चाहिए,
भूखों को भण्डार चाहिए।।
                                                        -विजय

शनिवार, 27 अगस्त 2011

मंथन


भीड़ के एकान्त में मंथन चले जब
दीप के अवसान पर ज्वाला बने लौ
ध्यानस्थ निश्चलता बने जब
आधार झंझावात का
सुर-असुर के द्वन्द्व में
मुश्क़िल बताना कौन क्या है?


खोजता मैं मौन की गहराइयों में,
उस ध्येय को, उद्देश्य को,
इस जन्म के निहितार्थ को
कर्म के अनगिनत श्रृंगों पर
कौन सी मेरी शिला है!


कौन सा संधान मेरी प्रतीक्षा में
मूक-निश्चल इंगितों से है बुलाता
पर नहीं इस कलम की वाचालता
भी ध्यान की गहराइयों में
जब निर्वाक् हो जाये तभी
स्पष्ट होगा व्योम का संदेश।
इस जन्म का वह ध्येय, वह उद्देश्य।
                                                            -विजय

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

मुखौटा


आइए! मुझसे मुखौटे ले जाइए
मेरे पास हर तरह के मुखौटे हैं,
आइए! क्या चाहिए-
नाम? दाम? एशोआराम?


आइए भाई साहब! बहन जी!
मुखौटे के बिना कुछ मिलता नहीं
ये देखिए-
यह मुखौटा समाज सेवक का है
आजकल इसका भाव चढ़ा है,
मल्टी लेयर्ड है, चाहे जो काम ले लो,
पर्त-दर-पर्त मढ़ा है।
जब चाहे प्रकृति के संरक्षक बन जाव
वन्य प्राणी बड़े सस्ते और सुलभ हैं,
उनकी ख़ूब बातें करो
और उन्हीं को मारो, खाव।
जब जिसमें सरकारी अनुदान मिले
वही मुखौटा पहनो,
कागज़ों पर वृक्षारोपण, जल संरक्षण,
अन्धत्व निवारण, साक्षरता
सब होता है तुम भी कर लो।
इसमें दाम भी है, नाम भी है
ग्रीन मैन ऑव इण्डिया
का अवार्ड आने वाला है
खावो, खिलावो और माला पहनो।


चलिए छोड़िए! नहीं पसन्द है?
तो लीजिए दूसरा
विद्वान-दार्शनिक बन कर
शोभित करें यह धरा।
इसमें भी अनन्त सम्भावनाएं हैं
आलोचक, प्रशंसक, कवि, लेखक
विचारक कुछ भी बन सकते हैं,
सारा मैदान है खाली पड़ा
दो चार शेर, कविताएं
अंग्रेज विद्वानों के उद्धरण
हो सके तो एकाध श्लोक
विदेशी दार्शनिकों के विचार
बोलिए! हो जाएगा पूरा प्रचार।
डी.एम., सी.डी.ओ., बी.एस.ए.,
डी.एफ.ओ. से मिलते रहिए
आँख पर चढ़ गये
तो समझो बढ़ गये।
शहर में कुछ भी हो
पहुँचिए और बोलिए!
ज्ञान का पिटारा खोलिए!
दाम कम है पर सम्मान को
कम न तोलिए!
अफ़सर मुस्कुराकर मिलेंगे
तो अनन्त द्वार खुलेंगे
आपका नाम राष्ट्रपति पदक के लिए भेज दें
तो सारे समाचार-पत्र आपको फुल पेज़ दें।।



लगता है आप थोड़े में मानने वाले नहीं हैं
तो फिर यह नेता वाला मुखौटा लीजिए!
सम्पूर्ण सक्षम बन कर समाज का खून पीजिए,
इसके बारे में आपको क्या बतलाना
अग़र आप पूरे घाघ ना होते
तो अब तक किसी और मुखौटे पर
फिसल गये होते,
बस एक ख़्तरा है आगाह किये देता हूँ
एक बार पहनोगे तो उतरेगा नहीं
चाहे जितनी बार धोये जावो रहेगा वहीं,
भूल जावोगे अपनी शक्ल हमेशा के लिए
समझोगे अपने को सूर्य चाहे रहो बुझे हुए दीये।।

                                                                       -विजय
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