बुधवार, 30 नवंबर 2011

हर पहचान दोस्ती नहीं होती


हर पहचान दोस्ती नहीं होती।
उनके मिलने से ख़ुशी नहीं होती।।


मिलते हैं तो बातें होती हैं
पर पहले सी दिल्लगी नहीं होती।


प्याज की तरह चेहरे पर तमाम पर्ते हैं,
ऐसे लोगों की मुझसे बन्दगी नहीं होती।


अच्छाई की कद्र ग़र होती,
दुनिया में इतनी भद्दगी नहीं होती।


पढ़ाने वाले अग़र बाशऊर होते,
पढ़ने वालों में ये बेहूदगी नहीं होती।


हर चीज़ अग़र बाज़ार में बिकती होती,
तो कुछ भी बेशकीमती नहीं होती।


रिश्तों को उनका सम्मान मिलता,
तो सती जा के सती नहीं होती।।
                                                                -विजय

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

चाँद के दाग तो न दिखाई देंगे


क्या हुआ जो नज़र कमज़ोर हो चली
चाँद के दाग तो न दिखाई देंगे।
जो पास हैं उनपे तो तवज्जो होगा,
जब दूर वाले साफ़ न दिखाई देंगे।


तेज़ नज़रों के मीन-मेख से क्या पाया यारों,
जो साथ-साथ चलते थे उन्हें गंवाया यारों,
कमज़ोर नज़र अच्छी कम ही देखेगी
सबके नहीं बस अपने सनम देखेगी।


हर अक्स पर झीना पर्दा सा लगता है,
हर शख़्स कोहरे में लिपटा सा लगता है,
हर कली हौले-हौले मुस्काये,
तितलियों का उड़ना मौसिक़ी सा लगता है।


फिर नज़रों को लेकर परीशाँ क्यों हों
उम्र के साथ घटने की मसलहत समझो,
अब वक्त बाहर नहीं अन्दर झांकने का है
औरों की नहीं अपनी कमियां आंकने का है।
                                                                 -विजय

सोमवार, 28 नवंबर 2011

सुख से मानव कभी न सीखे


दुःख का रिश्ता जनम-जनम से
सुख तो आता जाता है,
सुख से मानव कभी न सीखे,
दुःख ही उसे सिखाता है।।


सुख में जीवन उस सरिता सा
जिसमें कोई वेग नहीं,
लहरें तो उठती ही हैं तब,
जब होता अवरोध कहीं।।


अवरोधों से लड़ूँ और जीतूँ
जब भाव प्रबल होता,
दुर्दमनीय तरंगों सा फिर
जीवन और सबल होता।।


गिरकर ही चलना सीखा है
अब तक के हर बालक ने,
प्रथम श्वास के साथ ही रोदन
नियम दिया अनुपालक ने।।


मानव-शिशु ही केवल रोता
ऐसा क्यों? क्या सोचा है?
चिन्तन करो गहन तो देखो
उत्तर बहुत अनोखा है।।


हर प्राणी का कर्म मात्र
अनुवांशिक है, स्वविवेक नहीं,
मानव मात्र कर्म का स्वामी
करे ग़लत या करे सही।।


फिर तो वह ही भुगतेगा
अपने कर्मो का परिणाम,
यही सोच कर रोता है क्या?
कैसे हो शुचिता से काम।।
                                           -विजय

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

एक खुला पत्र नक्सलवादियों के नाम


हे समाज के सच्चे पर अतिबुद्धिवादियों!
जिन आदर्शों के लिए तुम अपना 
और भोले आदिवासियों का खून 
बहाकर पैदा कर रहे हो ज़ुनून,
निर्मम हत्याओं के कलंक का टीका
लगाना तुमने जिनसे सीखा!
कभी उनके आचरण और परिणाम
पर तुमने दिया ध्यान?


वर्ग-संघर्ष, ज़ुल्मी ज़मींदार, बुर्जुआ
जैसे शब्दों से तुम्हें बींधकर
तुम्हारे स्वतन्त्र चिन्तन-शैली का
जिसने किया अपहरण,
वे क्या नहीं कर रहे हैं तुम्हारा शोषण?


तुम उस आग की तरह हो
जिसमें गर्मी बहुत है,
पर प्रकाश नहीं है
और तुम्हारा आदर्श है
प्रकाशित करना न कि जलाना!


दुनिया के किसी देश में, किसी काल में
आर्थिक और सामाजिक बराबरी रही हो
तो मित्र मुझे भी बताओ!
मैं भी तुम्हारे साथ अपने को
होम करने के लिए तत्पर हूँ!


पर भोले-भाले ग्रामीणों को
अपरिपक्व, उधार के दर्शन में
मत तपावो!
मैं जानता हूँ मित्र! तुम सच्चे हो,
पर भटके हो
और यह दर्प कि ‘तुम हटके हो’
तुम्हें बलिदानी बना रहा है।


शोषण का प्रतिकार प्रतिशोषण नहीं,
हिंसा का प्रतिकार प्रतिहिंसा नहीं,
अव्यवस्थाओं का प्रतिकार अव्यवस्था नहीं है मित्र!
एक नयी सामाजिक क्रान्ति का उपक्रम अन्ततः
पुनः एक नये शोषक-वर्ग को जन्म नहीं देगा?


जिसको अपना आदर्श मानकर
एक और अन्धविश्वास के तहत
तुम अपने को होम कर रहे हो,
निष्पक्ष बुद्धि से उनका आकलन करो
तो देखोगे-एक नये परिधान में पुनः
एक शोषक तुम्हारा शोषण कर रहा है।


तुम्हारी भावनाएं अत्यन्त उदात्त हैं,
तुम्हारी पर-पीड़ा-अनुभूति अत्यन्त तीव्र है,
यही अतिरेक तुम्हें भावनात्मक
शोषण का पात्र बनाता है।
परिपक्व होने दो अपनी इन अनुभूतियों को
फिर तुम हिंसा के नहीं, प्रेम के
अजस्र स्रोत बनोगे! बुद्ध बनोगे
और बुद्ध बनने के लिए अपने
संवेगों को सम्यक् करना होता है।।


आपके लिए ही एक ग़ज़ल-


इक मुकम्मिल दर्द का एहसास हो।
फिर आदमी कुछ ज़िन्दगी के पास हो।।


गहन-वन की कन्दराओं में गया,
खोजता था सन्त जो कुछ ख़ास हो।


उम्र भर मैं राह ही देखा करूँ,
उनके आने की ज़रा भी आस हो।


दोस्ती में फ़र्क पड़ सकता नहीं,
दोस्त ग़र पूरी तरह बिन्दास हो।


डूबे गले तक आज दूषित पंक में,
या रब! इन्हें भी सत्य का आभास हो।


वो क्या जियेगा ज़िन्दगी पूरी तरह जो
चालो-चलन, रस्मो-रसम का दास हो।।
                                                                    -विजय

शनिवार, 5 नवंबर 2011

एक अन्धी लड़की की प्रार्थना-


हे परम पिता!
स्वीकारो मेरा अभिवादन!
जो कह रही हूँ, मेरी उत्सुकता है
मत समझना मेरा रुदन!


दिन और रात क्या अलग से दिखते हैं?
कैसा लगता है जब लोग हँसते हैं?
हँसी केवल सुनने की चीज़ है?
या दिखायी भी पड़ती है?
चिड़ियों की चहचहाहट मैंने सुनी है
ये क्या हैं? कैसी होती हैं?


मैंने हाथी और दस अन्धों की कहानी सुनी,
ख़ूब हँसी और ख़ूब रोयी!
मैं भी तो नहीं जानती कि
हाथी कैसा होता है?
फूल, इन्द्रधनुष, मेरी माँ की शक्ल
ये सब कैसे हैं?


मेरी माँ एक सुखद स्वप्न देखती है,
कोई विशाल-हृदय व्यक्ति मरणोपरान्त
अपनी आँख मुझे देगा
और मैं सब देखूँगी!!


हे परम पिता! क्या यह सम्भव है?
क्या ऐसे लोग भी हैं?
मेरी एक ही अभिलाषा है
अपनी माँ की शक्ल देख सकूँ!
मुझे मालूम है तुम भी वैसे ही होगे
हे परम पिता! सुन रहे हो न?
इस अँधेरे संसार में तुम कहीं हो न?
(गारो से भावानुवाद)
                                                              -विजय

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

फूलों की घाटी

पुष्पघाटी की एक अलसायी सुबह
पुष्पगंगा के सलिल पर पौड़कर
मन तिर रहा था कुहरे की परतों पर
अचानक छिछलते हुए पैठ गया अन्दर।


ब्रह्मकमल की भीनी ख़ुश्बू
निःशब्द अतीत की गहराइयों में
खोलने लगा अवगुण्ठन इस
अजर अमर आत्मा के।


फिर देखा निर्निमेष आँखों से
द्रौपदी का वह मूक उपालम्भ
गन्धर्वों का वह प्रचण्ड शौर्य
जिससे हार मैं खड़ा हूँ
आज दर्प दलित भीम
ला न पाया पुष्पोपहार
और गया हार!


कितना अवसाद कितनी कुंठा
पर फिर भी आत्मसम्मान
इस अकेले का राजशक्ति से
हारने का अभिमान
पर हाय! यह आत्मतोष भी
न भाग्य में बदा था!


अर्जुन के भ्राता को छोड़ दिया ससम्मान
और मैं अवसाद के पुष्प लिए
द्रौपदी के सम्मुख खड़ा था,
आत्मघात भी न कर पाया यह कापुरुष
जबकि मेरे हाथ में गदा था।
                                                                  -विजय
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