शनिवार, 31 दिसंबर 2011

गुरु द्रोण चीरहरण कर रहे हैं

गुरुतर भार था जिनके कन्धों पर
संवारने और सजाने का
नयी दिशा-नयी दृष्टि-नयी सोच से
नयी फ़सल उगाने का,
जिनसे अपेक्षा थी, विभिन्न वादों-
विवादों के भंवर से साफ़ बचाकर
निकाल ले जाने का,
जिनसे आशा थी, नवीनता के नाम पर
बौद्धिक अतिरेकता से परहेज की,
वे स्वयं आधुनिकता के नाम पर
अश्लीलता का वरण कर रहे हैं,
दुःशासन दूर खड़ा देखता है
गुरु द्रोण चीरहरण कर रहे हैं।।
                                                    -विजय

शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने

आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने,
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।


रौंदकर अपने अहम को,
हाथ फैलाकर तुम्हारे द्वार पर,
दान की झोली लिए दर-दर फिरा,
आजीविका तो यह नहीं थी मान्यवर!


व्यस्तता के क्षण हुए तब सूर्य-रथ से
हो गयी चिन्तित सुस्वप्नों की लड़ी भी,
सूखकर जब रह गयी थी प्रियतमा के
मार्ग तकते अश्रुओं की वह झड़ी भी।


प्यार शिशुओं का न मुझको खींच पाया,
भावना कर्त्तव्य से बढ़कर नहीं है,
सोच कर यह पुष्प अन्तर के
न अब तक सींच पाया, पर
खुली जब आँख तो देखा
कि यह क्या?


मैं चला था साथ जिन सब बन्धुओं के
वे खड़े हैं हाथ में पत्थर उठाये!!
शक्ति पैरों की वहीं पर जम गयी तत्क्षण
विश्वास के मोती लगे जब कौड़ियों के मोल बिकने।


आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने।
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।।


याद करता रहा बीते हुए क्षणों की मिठास
भरमाता रहा अपने को रीते हुए सम्बन्धों में,
क्या रोक सकता है कोई!
शाम की ढलती हुई उजास?
धीरे-धीरे पर्त-दर-पर्त ज्यों-ज्यों खुले
प्रकृति के शाश्वत नियम
होने लगा इस बात का एहसास
कलियों की पंखुड़ियों का अवगुण्ठन
क्या हो सकता है पुष्पों के पास!
और अगर यह कसाव सिथिल न हुआ
तो क़ैद सौरभ, क्या रह जायेगा उदास!
कच्चे कठोर फल क्या पायेंगे?
पके हुओं की बू-बास!


तो ऐ मेरे मन! मत ले लम्बी निःश्वास
आने वाले की चिन्ता मत कर-
बीते क्षणों का रोना मत रो!
जी हर क्षण-हर पल
सुरभित करदे अपनी हर सांस!
                                                    -विजय

सोमवार, 26 दिसंबर 2011

मत कल के घने कोहरे से ख़ौफ़ खाइये

अब ज़रा सी धूप निकली, जश्न मनाइये।
मत कल के घने कोहरे से ख़ौफ़ खाइये।।


मुस्कुरा के कहाँ चल दिये, ज़रा पास आइये,
ये बेरुख़ी हमीं से क्यूँ, ज़रा बैठ जाइये।


कल को छिड़ेगी जंग, अभी तना-तनी है,
पहले कुछ किया हो तो उसे अब भुनाइये।


बुज़ुर्गों का काम ही है, बच्चों से खेलना,
जो भूल चुके लोग वे किस्से सुनाइये।


रो-रो के सो गये बच्चे जो भूख से,
चर्चा बज़ट की हो रही उनको जगाइये।


निकलीं थी जितनी कोपलें, सब सांड़ खा गये,
अब गाय पूज-पूजकर मातम मनाइये।


जल चुकी हैं रस्सियां ऐंठन गयी नहीं,
मत तोड़िये भरम, मत हाथ लगाइये।।
                                                            -विजय 

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

वक्त की मार

समस्त जीवन का प्यार
मधुरता-अवलम्ब-जीवनाधार
हंसते-बतियाते-रूठते-मनाते
लम्बे सफ़र पर
बहुत-बहुत दिनो तक
अनन्त तक,
साथ चलने का आग्रह
वादा-संकल्प-विचार,
आजमाते, थहियाते एक दूजे को
कभी जीत, कभी हार।
बाहों में थाम लेने को जब सामने,
पड़ा हो सारा आकाश-सारा संसार
कभी देखा है?
उल्लास-उमंगों की ऊँची तरंगों को,
सहसा सन्नाटा साधते?
जैसे उफनते दूध पर पड़ गयी हो
शीतल जलधार!
जिन तरंगों में साहस-दमखम-उन्माद था
तूफ़ान से भिड़ने-खेलने का
एक हल्के हवा के झोंके से
सहमते-सिमटते देखकर
एहसास होता है कि
कितना कठिन-दुस्सह है
वक्त की मार।।
                                                    -विजय 

शुक्रवार, 23 दिसंबर 2011

पंचमढ़ी-

झरने-
सुखद-सुमधुर-सुकुमार,
चपल-वंकिम-रसधार,
अमल-निर्झर-शीतल फुहार,
अनादि-अनवरत-आवेष्ठित हार।
जंगल-
सौम्य-श्यामल-शीतल,
आच्छादित किये भूतल,
मूक ऋषिगण-जीवनाधार,
मानव का प्रथम आधार।
गुफ़ाएं-
गहरे-निविड़-शैलाश्रय
प्रकृति की अनोखी कृति,
ध्यानस्थ भोले महादेव
उठो! करो गरलपान
दग्ध है सकल सुकृति
विकल सत्य! आदिदेव!
त्राहिमाम! त्राहिमाम!
                                        -विजय 

रविवार, 18 दिसंबर 2011

हाइकू-

1-
चपरासी से आई.ए.यस. तक,
रिजेक्ट भये सेलेक्शन मां,
तब खड़ा भये इलेक्शन मां।
2-
ई पब्लिक बड़ी होशियार है,
गुंडन से येका प्यार है,
और उनकै बेड़ा पार है।
3-
वोट मागै जे आवै,
दूध-पूत सब पावै,
इच्छा हमार है।
4-
वोट देवै जे जाई,
लात-घूसा ते पाई,
देह तौ तोहार है।
5-
एक बार जिताय देव,
लाल बत्ती पाय देव,
फिर का तोहार है!
6-
जीतेक बाद मौज़ करब,
अमरीका कै सैर करब,
आये इलक्शन फिर लड़ब!
7-
हम लगायन हम पायन,
यहमां कौन गोहार है?
सांसद-निधि हमार है!
8-
सुरा-सुन्दरी से क्यौ बचा है?
केहुक उज़ागिर केहुक पचा है,
चर्चा ही बेकार है!
9-
चोरकट, चिरकुट सुनत रहब,
जी सर! जी सर! करत रहब,
आदत हमार है!
                                                      -विजय 

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

ज़ोर से जो बज रहा थोथा चना है

ज़ोर से जो बज रहा थोथा चना है।
मौन का अब शोर से ही सामना है।।

हौले-हौले आह भर लो चीखो नहीं,
हिन्द में जनतन्त्र है चिल्लाना मना है।

देखते हो गगनचुम्बी भवन को,
यह शानो-शौक़त हमारे पसीने से बना है।

हर वो हाथ जिसको आज कमल कहते हैं,
रक्तरंजित है गुनाहों से सना है।

लड़कियों की शादियों में जो झुका था,
आज लड़के के लगन में कैसा तना है।

नक़ल करके पास होके साहिबी पायी,
कहीं पर गिड़गिड़ाएं कहीं पर कटखना है।

जश्न चारों ओर है शोर है,
पर न जाने आज क्यों मन अनमना है।
                                                               -विजय

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

हृदय उसका सर्वदा निर्मल रहा है


हृदय उसका सर्वदा निर्मल रहा है।
ईमानदारी का जिसे सम्बल रहा है।।


ईमानदारी और वह भी मुकम्मल,
अरे यारों! यह सभी को खल रहा है।


धर्म जिसके साथ उसको फ़िक्र क्या है,
मौज़ सारी ज़िन्दगी पल-पल रहा है।


जीत में कोई खुशी हासिल न होगी,
जीतने में दांव यदि छल-बल रहा है।


दौड़ता ही रह गया जो ज़िन्दगी भर,
मरने पर भी पांव में हलचल रहा है।


बात क्या है के सरे बाज़ार जो,
खोटा सिक्का सर उठाये चल रहा है।


आँधियों, तूफ़ान से लड़ता रहा वो,
एक दीपक है जो अब भी जल रहा है।।
                                                            -विजय

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

पीड़ा


पीड़ा, अपमान, तिरस्कार,
अकेलापन, बेबसी, अत्याचार
बड़े मुक्तिदायी हैं अग़र बिंध जायें
करते हैं पूरे व्यक्तित्व का परिष्कार।


राम, परशुराम, पाण्डव, विश्वामित्र
प्रताणित होकर ही प्रखर बने
इस मुक्तिदायी पीड़ा से न गुज़रते
तो कौन गाता इनका चरित्र?


सीता अग्नि से भी प्रदाहक
परिस्थितियों में तपकर
सती साध्वियों की आदर्श बनीं
कोढ़ी के साथ कढ़कर ही
सावित्री की यम से ठनी,


निविड़ जंगलों के एकाकीपन ने
लव-कुश को तराशा था
अश्वमेघ का घोड़ा
भरत-शत्रुहन की फ़ौज
उनके लिए तमाशा था।


इन्द्रजित की अमोघ शक्ति को
लक्ष्मण ने सहा था
इस पीड़ा से ही प्रस्फुटित हुई थी
वह प्रचण्ड शक्ति
जो सौमित्र के धनुष से बहा था।


अपमान विभीषण को
अन्दर तक हिला गया
रावण को मौत,
उसको लंका का छत्र दिला गया।


चाणक्य इतिहास के अंधेरे में
ग़ुम हो गये होते,
महानन्द का अपमान अग़र
 चुपचाप सह गये होते।


बाबर बुरी तरह अपमानित होकर
ईरान से भागा था,
इस पीड़ा ने ही उसको
भारत की बादशाहत के लिए साधा था।


इतिहास में एक नहीं
हजारों उदाहरण पढ़े हैं
जिनको पीड़ा का दंश लगा
केवल वे ही बढ़े हैं।।
                                                 -विजय
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