शनिवार, 27 अगस्त 2011

मंथन


भीड़ के एकान्त में मंथन चले जब
दीप के अवसान पर ज्वाला बने लौ
ध्यानस्थ निश्चलता बने जब
आधार झंझावात का
सुर-असुर के द्वन्द्व में
मुश्क़िल बताना कौन क्या है?


खोजता मैं मौन की गहराइयों में,
उस ध्येय को, उद्देश्य को,
इस जन्म के निहितार्थ को
कर्म के अनगिनत श्रृंगों पर
कौन सी मेरी शिला है!


कौन सा संधान मेरी प्रतीक्षा में
मूक-निश्चल इंगितों से है बुलाता
पर नहीं इस कलम की वाचालता
भी ध्यान की गहराइयों में
जब निर्वाक् हो जाये तभी
स्पष्ट होगा व्योम का संदेश।
इस जन्म का वह ध्येय, वह उद्देश्य।
                                                            -विजय

मंगलवार, 23 अगस्त 2011

मुखौटा


आइए! मुझसे मुखौटे ले जाइए
मेरे पास हर तरह के मुखौटे हैं,
आइए! क्या चाहिए-
नाम? दाम? एशोआराम?


आइए भाई साहब! बहन जी!
मुखौटे के बिना कुछ मिलता नहीं
ये देखिए-
यह मुखौटा समाज सेवक का है
आजकल इसका भाव चढ़ा है,
मल्टी लेयर्ड है, चाहे जो काम ले लो,
पर्त-दर-पर्त मढ़ा है।
जब चाहे प्रकृति के संरक्षक बन जाव
वन्य प्राणी बड़े सस्ते और सुलभ हैं,
उनकी ख़ूब बातें करो
और उन्हीं को मारो, खाव।
जब जिसमें सरकारी अनुदान मिले
वही मुखौटा पहनो,
कागज़ों पर वृक्षारोपण, जल संरक्षण,
अन्धत्व निवारण, साक्षरता
सब होता है तुम भी कर लो।
इसमें दाम भी है, नाम भी है
ग्रीन मैन ऑव इण्डिया
का अवार्ड आने वाला है
खावो, खिलावो और माला पहनो।


चलिए छोड़िए! नहीं पसन्द है?
तो लीजिए दूसरा
विद्वान-दार्शनिक बन कर
शोभित करें यह धरा।
इसमें भी अनन्त सम्भावनाएं हैं
आलोचक, प्रशंसक, कवि, लेखक
विचारक कुछ भी बन सकते हैं,
सारा मैदान है खाली पड़ा
दो चार शेर, कविताएं
अंग्रेज विद्वानों के उद्धरण
हो सके तो एकाध श्लोक
विदेशी दार्शनिकों के विचार
बोलिए! हो जाएगा पूरा प्रचार।
डी.एम., सी.डी.ओ., बी.एस.ए.,
डी.एफ.ओ. से मिलते रहिए
आँख पर चढ़ गये
तो समझो बढ़ गये।
शहर में कुछ भी हो
पहुँचिए और बोलिए!
ज्ञान का पिटारा खोलिए!
दाम कम है पर सम्मान को
कम न तोलिए!
अफ़सर मुस्कुराकर मिलेंगे
तो अनन्त द्वार खुलेंगे
आपका नाम राष्ट्रपति पदक के लिए भेज दें
तो सारे समाचार-पत्र आपको फुल पेज़ दें।।



लगता है आप थोड़े में मानने वाले नहीं हैं
तो फिर यह नेता वाला मुखौटा लीजिए!
सम्पूर्ण सक्षम बन कर समाज का खून पीजिए,
इसके बारे में आपको क्या बतलाना
अग़र आप पूरे घाघ ना होते
तो अब तक किसी और मुखौटे पर
फिसल गये होते,
बस एक ख़्तरा है आगाह किये देता हूँ
एक बार पहनोगे तो उतरेगा नहीं
चाहे जितनी बार धोये जावो रहेगा वहीं,
भूल जावोगे अपनी शक्ल हमेशा के लिए
समझोगे अपने को सूर्य चाहे रहो बुझे हुए दीये।।

                                                                       -विजय

बुधवार, 17 अगस्त 2011

यक्ष-प्रश्न

छोटे बेटे ने पूछा-
पापा! हर साल जनवरी और अगस्त में क्या होता है?
जो रेडियो-टी.वी. अच्छे गाने छोड़कर केवल रोता है?

मैं कुछ बोलूँ, इससे पहले बड़का बोला-
अरे छोटुआ! तू अभी है बहुत भोला!
इसी महीने में अंग्रेज भारत से भागे थे
और सदियों की गुलामी के बाद हम जागे थे।

छोटे ने फिर प्रश्न किया-
भइया तुम्हीं बताओ,
अंग्रेज किसलिए आये और क्यों भागे?
और तुम अच्छी नीद से क्यों जागे?

बड़े ने माथा खुजाया,
कुछ मुस्कुराया फिर बोला,
अंग्रेज आये तो थे व्यापार करने,
पर करने लगे राज, उन्होंने रेल चलाई,
पोस्ट ऑफ़िसों का जाल फैलाया,
स्कूल खोले, अस्पताल बनवाए,
अख़बार निकाला, बिजली घर बनवाए
और सिखाया हम सबको उठाना आवाज़,
फिर हमने आवाज उठाई,
चली लम्बी लड़ाई,
भगत सिंह, आज़ाद, विस्मिल
जैसे शूरवीरों ने जान दे दी,
अपना देश बन गया बलि-वेदी,
गाँधी जी लम्बी लाठी लेकर
थे सबसे आगे,
तब जाकर कहीं अंग्रेज भागे।
और इस शोर से हम सोते-सोते जागे।

छोटे का समाधान नहीं हुआ, फिर बोला-
आख़िर जब अंग्रजों ने इतना विकास किया
तो भगाने की क्या ज़रूरत थी?
क्या तब भी जाती थी इसी तरह बिजली?
क्या रोज़ रेल हादसे होते थे?
अस्पतालों के दरवाज़े पर मरीज़ रोते थे?
तब क्या ट्यूशन का बोलबाला था?
क्या रोज़ इक नया घोटाला था?

जो अब हो रहा है
क्या इसीलिए वीरों ने दी थी कुर्बानी?
क्या आज के शासकों की तरह
अंग्रेज करते थे मनमानी?

बड़कऊ ऊपर शून्य में ताकने लगा
इन अनुत्तरित प्रश्नों का उत्तर झांकने लगा।
मैंने सोचा कुछ बोलूँ, पर अचकचा गया,
यक्ष
प्रश्नों के ज़वाब से अपने को बचा गया।।
                                                                        -विजय

रविवार, 14 अगस्त 2011

15 अगस्त भारतीय स्वाधीनता दिवस पर-

हर साल मनाते हैं इसे धूम-धाम से,
क्या देश बढ़ सकेगा महज ध्वज-प्रणाम से?

लबरेज़ जो नहीं है हृदय देश-प्रेम से,
क्या ख़ाक मिलेगा तुझे झूठे सलाम से!

क्या कर रहे हैं आप आज़ादी के लिए अब?
कब तक खिंचेगी नाव बुज़ुर्गों के नाम से!

इस देश के विकास का इक ही है रास्ता,
हर एक शख़्स प्यार करे अपने काम से।

इक नये विहान की उम्मीद में सब हैं
ये नौनिहाल आज के कल के कलाम से।

इंसानियत से बड़ा है देश भी नहीं,        
बांटे जो सबका दर्द वह करीम-राम से।।
                                                               -विजय

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

माटी की गंध लौट आती है

बौराई अमराई में कभी
कोयल की कूक जब सुनता हूँ,
माटी की गंध लौट आती है,
लड़कपन-उमंग लौट आती है।

वैसे तो बदल गया मन, चित
फिर भी वैसी ही है यह प्रकृति,
वर्षा की रातों में जुगुनू,
चमक-चमक जाते हैं लुक-छिप,
अंगूर और सेब तो अच्छे हैं,
पर यार! मन से हम बच्चे हैं,
एक-एक बेर की चिरौरी याद आती है,
फालसा और फरफररेवरी याद आती है।
                                            माटी की गन्ध लौट आती है...
वैसे तो व्यंजन बहुत हैं,
मन को मनोरंजन बहुत हैं;
पर यार हम अपने को क्या कहें
भूजा और भेली का सोंधापन
यादों के सारे दरीचे खोल जाती है।
                                            माटी की गन्ध लौट आती है...
वैसे तो अब मैं पढ़ाता हूँ,
पढ़े हुए पाठ दोहराता हूँ,
पर मुझको जिन्होंने
था पढ़ाया,
उनकी छपकी की मार याद आती है,
बाबू साहब की दहाड़ याद आती है,
मौली साहब की पुकार याद आती है।
                                            माटी की गन्ध लौट आती है।
                                            लड़कपन-उमंग लौट आती है।।
                                                                                      -विजय

शनिवार, 6 अगस्त 2011

आकाश दर्शन (बाल जिज्ञासुओं के लिए)

आसमान में अरबों तारे,
सब के सब हैं बहुत बड़े।
अपनी पृथ्वी अपने सूरज,
से भी ये हैं बहुत बड़े।।

महाकाश के महाशून्य में,
सब के सब हैं भटक रहे।
समझ नहीं आता कैसे? किस?
आकर्षण से लटक रहे।।

स्थिर नहीं एक भी इनमें,
सब के सब हैं घूम रहे।
कोई मात्र गैस के गोले,
किसी-किसी में भूमि रहे।।

कोई बहुत गरम है कोई
अतिशीतल बे-रोशन है।
कहीं वायुमण्डल है सुखकर,
कहीं न कोई मौसम है।।

भ्रमण-घूर्णन और झूमना,
तरह-तरह के गति वाले।
छोटे उल्कापिण्ड न पूँछो,
हैं ये बुरी नियति वाले।।

जब भी जी में आया इनके
बड़े वेग से बरस उठे।
ये ताण्डव करते जब, धरती
सूर्य-किरण को तरस उठे।।

धूमकेतु जो पुच्छल तारे,
भ्रमणशील हैं बहुत अधिक।
सौर्य-क्षेत्र में आते हैं ये,
पर हैं ये बाहरी पथिक।।

झलमिल करती बहे नदी सी,
वह आकाश की गंगा है।
नीले-लाल गुच्छ में तारे,
दृश्य बहुत सतरंगा है।।

द्वादश-राशिक बात छोड़िए,
सब के सब बहुरुपिए हैं।
बिच्छू, मछली, शेर आदि के,
कितनी शक्ल लिए ये हैं।।

इस महान् संरचना का,
प्रारम्भ हुआ कब होगा अन्त।
प्रश्न जटिल है पर वैज्ञानिक-
शोध चले जीवन पर्यन्त।।

इस रहस्यमय गुत्थी का कुछ
छोर-किनारा बूझ रहे?
उस महान् रचनाकर्ता के
इस रहस्य से जूझ रहे।।

                                                  -‘विजय’

बुधवार, 3 अगस्त 2011

चरैवेति-चरैवेति

गर्मी भर पढ़ता रहे, ‘चरैवेति’ का पाठ।
पर्वत, झरना, ग्लेशियर, उसके ही हैं ठाट।।

पिट्ठू में सामान रख, पहने ऊँचा बूट।
नदियों सा अल्हण बहे, पीवे निर्झर घूंट।।

छायांकन में है मज़ा, सुन्दरता चहुँ ओर।
तितली, पक्षी, फूल, तरु, हिम-शिखरों पर भोर।।

देवदारु, अखरोट के, जंगल में आवास।
भोजपत्र औ धूप का चारों ओर सुबास।।

वर्फ गला औ पुष्प का, बिछता है कालीन।
इस नैसर्गिक दृष्य में, मन होवे लवलीन।।

झरनों के संगीत में, संगत देय विहंग।
सम्मोहन है प्रकृति में, हर छिन बदले रंग।।

जो चाहो निर्बन्धता, जीवन बिना तनाव।
यायावर बन प्रकृति से, एकरूप ह्वयि जाव।।
                                                                   -‘विजय’
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