शनिवार, 30 जुलाई 2011

बहुत छिछोरा है मन मेरा

तन को तो बहला लूँ लेकिन
मन को मैं कैसे बहलाऊँ
बहुत छिछोरा है मन मेरा
उसको मैं कैसे समझाऊँ?

जीवन की लम्बी यात्रा में
कितनी बार फिसल कर सम्भला,
तन को मैंने साध लिया पर
मन तो क़दम-क़दम पर मचला,
जीवन के इस सांध्य गगन के
मन-तरंग किसको दिखलाऊँ?
                             बहुत छिछोरा है मन मेरा...

बाबा-दादा सम्बोधन में
कितना प्यार भरा है लेकिन
इसके पीछे से ध्वनि आती
ऐ बुड्ढे! तू अपना दिन गिन
गालों की झुर्री को कबतक
लगा क्रीम रगड़ूं, सहलाऊँ?
                             बहुत छिछोरा है मन मेरा...

सागर के तट पर बैठा पर
प्यास-तड़प से आकुल हूँ मैं,
धूप सेंकती रूप-राशि के
चितवन से व्याकुल हूँ मैं,
जल तो तृप्त करेगा तन को,
मन की तृप्ति कहाँ से पाऊँ?
                            बहुत छिछोरा है मन मेरा...

योग, ध्यान सब करके देखा,
पढ़ा बहुत सन्तों का लेखा,
प्रवचन-पोथी मेट न पाये
मन की व्याकुलता की रेखा,
ध्यान लगाता हूँ ईश्वर में
कहां लगे कैसे बतलाऊँ?
                             बहुत छिछोरा है मन मेरा...
                                                                    -‘विजय’

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

जो बातों के धनी नहीं...


जो बातों के धनी नहीं,
उनसे मेरी बनी नहीं।


रूखा है पर सच्चा है,
उससे मेरी ठनी नहीं।


मीठी बोली किस मतलब की,
जो यथार्थ से सनी नहीं।


पानी की बूंदें भी चमकें
वो हीरे की कनी नहीं।


जिनको देना ही ना आया,
वो तो कतई धनी नहीं।


ग़र पड़ोस में भूखा कोई,
तो दीवाली मनी नहीं।।


डॉ. प्रभाकर मिश्र जी को सादर-
                                         
                                          -‘विजय’

बुधवार, 20 जुलाई 2011

उसका जीवन भी क्या जीवन

जिसका जीवन श्लाध्य नहीं है,
उसका जीवन भी क्या जीवन।
पूजा, स्तुति, कण्ठी, माला,
तिलक, त्रिशूल, केशरिया बाना,
फिर भी मन आराध्य नहीं है,
उसका जीवन भी क्या जीवन।

जीवन की सारी सुविधाएं
मौन इशारे से पद-तल हों,
मौन-मुखर सारी इच्छाएं
लेश मात्र में ही करतल हों,
जीवन में कुछ साध्य नहीं है
उसका जीवन भी क्या जीवन।

धूप-छांव का खेल न देखा
माटी की महिमा ना जानी,
पर दुःख कातर जो ना रोया,
दिवा-स्वप्न में जो ना खोया,
दिल के हाथों बाध्य नहीं है
उसका जीवन भी क्या जीवन

जीवन जो श्रम-साध्य नहीं है,
उसका जीवन भी क्या जीवन।
                                                   -‘विजय’

शनिवार, 16 जुलाई 2011

मन व्यथित है

मन व्यथित है, उर विह्वल है,
हृदय पर है बोझ भारी,
शौर्य क्षत सम्पाति सा है,
वेदना से ख़ुशी हारी।

काल-रथ आरूढ़ होकर
चल रहे सब मूर्ख, ज्ञानी,
क्षण-क्षण बदलते विश्व में
सब कल्पनाओं की कहानी।
ना अमिट है, ना अमर है
कर्म की कोई सुगाथा,
वंचनाओं से भ्रमित सब
गा रहे निज शौर्य गाथा।

संसार पारावार में तृण-पर्ण
से हम बह रहे हैं,
कोटिशः आवृत हुई है
वह कहानी कह रहे हैं
और हम समझे यही हैं
यह कहानी है हमारी।
मन व्यथित है, उर विह्वल है,
हृदय पर है बोझ भारी।।
                                          -‘विजय’

शनिवार, 9 जुलाई 2011

वह ही युवा है

भेद कर दुर्भेद्य धर्मावरण,
जो दे सके इंसानियत का सुबूत
                             वह ही युवा है।।

जब मान्यतायें रूढ़ियों में बदल जायें,
कभी की काल-सम्मत प्रथाएं
बदलते वक्त में अजगर सी जकड़ जायें,
क्षण-क्षण बदलते वक्त की आवाज
गुज़रे वक्त की खांसियों में दब जायें,
जो सिरे से इनको नकारे और करदे
इक नई शुरुआत
                           वह ही युवा है।।

भोग करके भोग में जो लिप्त न हो,
सत्य-सेवा का वरण करके कभी
इस दम्भ से विक्षिप्त न हो,
‘मार्ग कितना ही कठिन हो आगे बढ़ेंगे’
इस फ़ैसले के बाद कोई 
फ़ैसला अतिरिक्त न हो,
‘दर्द सबका दूर करना धर्म मेरा’
इस भावना से जो भरा हो
                          वह ही युवा है।।

जिसके क़दम प्रतिक्षण मचलते हों
किसी प्रयाण को, दर्दान्त
पर्वत-श्रेणियों पर जो थिरकते,
गतिमान करते पाषाण को,
उफनते सिन्धु पर
अठखेलियों में जो मगन हो,
गति नहीं, अवरुद्ध जल हो,
धरा हो, गगन हो,
उल्लास से भरपूर प्रतिक्षण,
हर परिस्थिति में जो मुस्कुराए
                           वह ही युवा है।।
                                                                -‘विजय’

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

अन्तर्द्वन्द्व

व्यक्ति का हर कर्म मूलाकार में,
क्या वासनाओं का स्फुरण है?
पल-पल छीजते जुड़ते
अहंकारों के गगन में
क्या ग़लत है? क्या सही है?
न्याय क्या? अन्याय क्या?
सम्मान क्या? अपमान क्या?
इन विचारों का पनपना
गुंझनों के सुलझने का
क्या पहला चरण है?

जब विरोधों की चुभन
कुछ रास सी आने लगे,
जब पुराने अनुभवों की तिलमिलाहट
मन्द पड़कर मन को बहलाने लगे,
क्या समझ लूँ ओज घटता जा रहा है?
या निरन्तर बढ़ रहे वय का वरण है?

जब आघात पर प्रतिघात
करने का न मन हो
विद्रूप बोझिल अट्टहासों की प्रतिध्वनि,
मन्द सी मधुस्मित सुमन हो,
चिलचिलाती धूप भी
जब छाँव सी भाने लगे,
दर्द की हर टीस से
जब हृदय गुनगुनाने लगे,
क्या समझ लूँ धार अब
तलवार की मुरदा रही है?
या हृदय में अहिंसा-भाव
का यह अवतरण है?

भावनाओं की नुकीली
चोटियां शान्त होकर
जब पठारों सी लहराने लगें,
प्रतिक्रियाओं की लपकती तीव्रता
उन्माद से बचकर निकल जाने लगे,
कुछ पुरानी दो टूक बेबाकियों से
स्वयं ही जब शरम आने लगे,
पूर्ण अवसर प्राप्त होने के अनन्तर
वार करने से जब मन कतराने लगे,
क्या समझ लूँ डोर
प्रत्यंचा के शिथिल हैं?
या अनाच्छादित हृदय में
सत्य का यह अनावरण है?
व्यक्ति का हर कर्म मूलाकार में
क्या वासनाओं का स्फुरण है?
                                                     -'विजय'
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