शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

डायरी के पन्नों से : अमरनाथ यात्रा

     युवजन चारण संस्था के मूलमन्त्र चरैवेति-चरैवेति से अनुप्राणित मस्तक पर वृहस्पति, हृदय में शुक्र, बाहों में मंगल-सूर्य एवं पैरों में शनि के प्रभाव से अभिप्रेरित कुछ फक्कड़-घुमक्कड़ निकल पड़े अमरनाथ यात्रा पर। परन्तु इतने ग्रहों का प्रभाव तो व्यर्थ ही जाता अगर हम नियत कार्यक्रम को सम्पादित करके ही वापस आ जाते। दिल्ली के युवा आवास में ही नियत कार्यक्रम को ठेंगा दिखाने की योजना हमारे पूर्व परिचित और इस कार्यक्रम के मीरे कारवां आलोक दा के साथ हमने बना ली थी। हमारे साथ शान्ति निकेतन युवा शाखा के अन्य और सदस्य थे जिनमें महिलाएं भी थीं। हमारी योजना अमरनाथ यात्रा पूरी करके बालटाल के तरफ से जोजिला पार करके ड्रास कारगिल लेह लद्दाख होते हुए लाहौल स्पीति की तरफ से कुल्लू निकल जाने का था। अभी-अभी कारगिल युद्ध समाप्त हुआ ही था और कारगिल में अभी भी बमबारी जारी थी। हमें डर था कि कार्यक्रम जानकर महिलाएं कहीं अपने वीटो पॉवर का प्रयोग न कर दें। अतः पूरा प्रोग्राम केवल पुरुषों तक ही सीमित रखा गया। कारगिल यात्रा-वृत्तान्त किसी और अवसर के लिए छोड़कर हम केवल आपको बर्फ़ानी बाबा के दर्शन के लिए ले चलते हैं।
     दिनांक 26 जुलाई अपराह्न हम लोग अपने पहले पड़ाव पंचकुला युवा आवास के लिए चल पड़े। रास्ते में पीपली युवा आवास रुक कर हमने कुरुक्षेत्र में भगवान श्री कृष्ण के गीता के उपदेश, जहां पर अपने अन्तःकर्णों से अभी भी सुनाई पड़ता है, का अनुश्रवण किया। पंचकुला पहुँचते-पहुँचते रात के लगभग दस बज गये थे परन्तु वहां के विंग कमाण्डर शर्मा जी अपनी चिर-परिचित मुस्कान एवं सुहृदयता के साथ बाहें खोलकर लिपट गये। भाभी जी ने तुरन्त खाना लगवाया और शर्मा जी रसोइए के बावजूद बाल-बच्चे समेत रोटियां सेकने लगे। कहां मिलेगा यह अपनापन? पंचकुला का युवा आवास अत्यन्त भव्य, शान्त, गरिमामय वातावरण में घघ्घर नदी के किनारे फूल-पौधों से सजा हुआ परिसर मन को बांधने लगता है। पर हम बंधने वाले कहां? रात्रि-विश्राम एवं प्रातः जलपान के पश्चात् हम निकल पड़े अपने दूसरे पड़ाव अमृतसर स्वर्ण मन्दिर की ओर। रास्ते में चण्डीगढ़ के रॉक गार्डन में शहर निर्माण के समय टूटे-फूटे चीनी मिट्टी के वर्त्तनों से निर्मित कलाकृतियों को देखकर कलाकार के सहज सृजनात्मकता को नमन् किया।
     स्वर्णमन्दिर देखकर तो आँखें खुली की खुली रह गईं। इतना भव्य, इतना शान्त, इतना गरिमामय, इतना स्वर्णमण्डित और इतनी सेवा भावना, इतनी स्वच्छता कहीं अन्यत्र अत्यन्त दुर्लभ है। सिक्खों की सेवा-भावना देखकर मन अनायास ही गुरुनानक देव से होता हुआ गुरुगोविन्द सिंह जी तक के दसों गुरुओं के प्रति श्रद्धावनत हो गया। बस एक ही अनुत्तरित प्रश्न मन को बार-बार कचोटता रहा कि इतनी सेवा-भावना, इतनी सुचिता फिर आतंकवाद की बर्वरता कैसे? अमृत सरोवर के स्वच्छ एवं शान्त जल में हरमन्दिर साहब की सुवर्ण आभा एक अलौकिक सौन्दर्य का सृजन कर रही थी। अषाढ़ की चतुर्दशी का चाँद अमृत सरोवर में अमृत वर्षा कर रहा था। संगमरमरी परिक्रमापथ पर बैठकर हम सभी ने मन्त्रमुग्ध से इस दृश्य का भरपूर रसास्वादन किया। चौबीस घण्टे चलने वाले लंगर में प्रसाद छकने के बाद श्री गुरु रामदास मन्दिर में विश्राम हेतु हम लोग जब लौटे तो अनायास ही मन मुड़-मुड़ कर हरि मन्दिर साहब की छटा देखने के लिए हमें विवश कर रहा था। दूसरे दिन 28 जुलाई को हम अमृतसर के दुर्गानी मन्दिर के दर्शन के पश्चात् गये जलियावाला बाग। अपने को सभ्य एवं समस्त संसार को असभ्य कहने वाले अंग्रेजों की पशुता की गाथा वहां के एक-एक ईंट-पत्थर रो-रोकर सुना रहे थे। अत्यन्त अभिजात्य वर्ग के सभ्यता की यह  परिभाषा मन को तब से आज तक मथे जा रही है। छद्म! छद्म! बार-बार यह शब्द हृदय में गुंजित हो रहा है।
     अमृतसर से जम्मू की यात्रा में प्रत्येक सहयात्री नितान्त अन्तर्मुखी था। लगता था कि जलियावाला बाग की त्रासदी प्रत्येक अपने अन्तर्मन में भोग रहा था। जम्मू में रघुनाथ मन्दिर में स्फटिक शिवलिंग के दर्शन से मन पुनः स्फटिक की भांति निर्मल हुआ। रात्रि विश्राम जम्मू स्टेडियम में खुले आसमान के नीचे करनी पड़ी क्योंकि अमरनाथ यात्री को सुबह चार बजे काफ़िला बनाकर जाने की अनुमति थी। सुरक्षा की दृष्टि से सरकार ने बहुत ही सतर्क प्रबन्ध किया था। पर हम बंधकर चलने वाले यात्री थे ही नहीं। जहां से वैश्णव देवी का रास्ता अलग होता था वहीं से हमने काफ़िले को सलाम किया और पहुँच गये कटरा माता कि दर्शन के लिए। रात्रि विश्राम की व्यवस्था करके हम तुरन्त वैश्णव माता की तेरह किमी. की चढ़ाई के लिए निकल पड़े। रास्ते में गर्भगृह की सकरी, घुमावदार गुफा से पार होकर हम पहुँच गये देवी के मन्दिर। धर्म की किंवदन्ती एवं इतिहास में लिपटा यहा रहस्यमय स्थान एक सकरी सी गुफा, जिसमें अनवरत पानी बहता रहता है, में स्थित है। महाकाली, महालक्ष्मी एवं वैश्णव देवी यहां पत्थर पर तीन उभारों (पिण्डियों) के रूप में पूज्य हैं। इनके दर्शन के उपरान्त तीन किमी. दूर स्थित भैरव के दर्शन का विधान है। कटरा से वैश्णव देवी मन्दिर तक यात्रियों को खाने-पीने, विश्राम एवं दवा-दारू का पर्याप्त प्रबन्ध सरकार तथा निजी व्यापारियों ने कर रखा है। पहले वैश्णव देवी का रास्ता अत्यन्त दुर्गम था एवं यात्री को धार्मिक लाभ के साथ-साथ दुर्गम चढ़ाई उतराई का रोमांच भी होता था। यात्रा सुगम हो जाने से वृद्ध एवं रुग्ण तीर्थ-यात्री के लिए भी यह अगम नहीं रहा।
     वापस कटरा आकर रात्रि-विश्राम के पश्चात् हम निकल पड़े पटनीटॉप के लिए। पटनीटॉप जम्मू-कश्मीर मार्ग पर देवदारु वनों से आच्छादित एक अत्यन्त ही रमणीय स्थल है। यहां का युवा आवास घने जंगल में लकड़ी का बना एक दो मंजिला मकान है। जाड़ों में यहां तीन-चार फिट बर्फ़ पड़ी रहती है। यहां से 19 किमी. दूर सरोवर से सूर्यास्त का मनोरम दृश्य मन पर एक अमिट छाप छोड़ जाता है।
     दूसरे दिन, इसके पहले कि अमरनाथ यात्रियों के काफ़िले में हम लोग पुनः फंस जायें, निकल पड़े श्रीनगर के लिए। काँजीगुण्ड में खाना खाकर क्रिकेट के सस्ते बल्ले खरीद कर हम लोग पहुँचे श्रीनगर। जो पिछले कुछ सालों के आतंकवाद से काफ़ी श्री हीन हो चुका था। एक-एक यात्री के लिए टूट पड़ते हाउसबोट व होटल मालिक इस बात के गवाह थे कि सबसे बड़ा धर्म रोटी है। वहां के लोगों, ख़ासकर युवकों से बातें करने पर हमें एहसास हुआ कि आतंकवाद केवल राजनीतिक ही नही है, कहीं पर कश्मीरियों का मन अन्दर से आहत भी है।
     श्रीनगर घूमने का सबसे अच्छा तरीक़ा शिकारे से घूमना ही है। डल लेक, नगीनलेक एवं झेलम नदी से निकली तमाम नहरें शहर के लगभग हर दर्शनीय स्थल तक जाती हैं। निशात बाग, चश्माशाही, चार चिनार, हज़रत बल, शंकराचार्य और थोड़ी दूर पर क्षीर भवानी अत्यन्त ही सौम्य और शान्त स्थल हैं। शिकारे पर बैठकर पानी में हौले-हौले तिरते हुए, चप्पू के लयबद्ध छप्-छप् आवाज़ पर मन धीरे-धीरे शान्त होता हुआ ध्यानस्थ हो जाता है। समय मिनटों-घण्टों के टुकड़ों नहीं वरन् काल के अनन्त प्रवाह सा आभासित होने लगता है। शिकारों पर बैठकर फूल बेचती किशोरियां या किसी जलीय पौधे की वायुवीय शाखा पर बैठकर मछली पर एकाग्र ध्यान लगाए स्माल ब्लू किंगफ़िशर, विशालकाय चिनार और झील के नीचे पानी में प्रतिबिम्बित बादल के सफ़ेद गोले, सब उस असीम के धागे में पिरोये हुए समय की सीमा-बन्धनों को ध्वस्त करते हुए परिलक्षित होते थे। कश्मीर का नैसर्गिक सौन्दर्य किसी सौम्य, सुन्दर, ध्यानस्थ सुमुखी सा प्रतीत होता है। अत्यन्त मनोरम पर कहीं उच्छृंखलता नहीं, कहीं चपलता नहीं, आभिजात्य से भरपूर।
     श्रीनगर में दो रातें बिताने के बाद हम निकल पड़े श्री अमरनाथ यात्रा पर श्रीनगर से पहलगांव एवं पहलगांव से  चन्दनवाड़ी की यात्रा श्री अमरनाथ के कल्पित चित्र में रंग भरने में बीत गई। अमरनाथ यात्रा की एक विशेषता हमने पाई कि जगह-जगह स्वयंसेवी संगठनों ने लंगर एवं रात्रि-विश्राम के लिए निःशुल्क कम्बल और टेण्ट की व्यवस्था कर रखी थी। इन आयोजनों में अत्यन्त प्रेम-आदर एवं भक्ति से स्वयंसेवक बन्धु सेवा-भाव से अपना कार्य सम्पादित कर रहे थे। मेरा मत है कि इस प्रकार के सेवा-आयोजनों की सीख हिन्दू धर्म को सिख धर्म से मिली होगी और इन सेवा-संगठनों में सिखों की बढ़-चढ़ कर भूमिका भी थी। भारत वर्ष में जो लोग एक धर्म व एक संस्कृति की बात करते हैं उन्हें अमरनाथ यात्रा पर अवश्य जाना चाहिए।
     चन्दनवाड़ी में भोजन, रात्रि-विश्राम, सुबह की चाय एवं भरपूर जलपान करके हम अपना सामान अपनी पीठ पर लादकर निकल पड़े अगले पड़ाव, 11 किमी. दूर स्थित शेषनाग की ओर। इस यात्रा में पिट्ठू घोड़ों एवं पालकियों पर सवार होकर आप यात्रा कर सकते हैं, परन्तु जो आनन्द और अनुभूति पैदल-यात्रा करने में मिलती है वह अन्य साधनों से असम्भव है।
     शेषनाग हिमाच्छादित शिखरों से घिरी एक प्राकृतिक झील है जहां पर कहते हैं कि भगवान शंकर ने अपने सर्प को त्याग दिया था। धवल श्रृंगों के बीच नीलाभ जलराशि एक अद्भुत सौन्दर्य का सृजन करती है। श्रद्धालुजनों द्वारा संचालित भण्डारों में भरपूर भोजन एवं समुचित रात्रि-विश्राम के बाद दूसरे दिन प्रातः ही हम तैयार हो गये अपने अगले पड़ाव पंचतरणी के लिए। 4600 मी. की ऊँचाई पर महागुनस दर्रा इस यात्रा का सर्वाधिक ऊँचा स्थान है। ऑक्सीजन की कमी और सीधी चढ़ाई शिवभक्तों को उनके संकल्प से विचलित नहीं कर पाती और धीरे-धीरे ऊँ नमः शिवाय के महामन्त्र की डोर पकड़ सबल-निर्बल, स्त्री-पुरुष, सुडौल-विकलांग सब पहुँच जाते हैं दर्रे के पार। फिर तो वहां से उतराई एवं घास तथा फूलों से लदे पांच धाराओं द्वारा सिंचित पंचतरणी आने में देर नहीं लगती।
     प्रातः केवल 6 किमी. पर बर्फ़ानीबाबा के दर्शन की उत्कण्ठा यात्रियों के पैरों को स्वचालित कर देती है। उत्साह से भरे यात्री हर हर महादेव और बाबा अमरनाथ की जय के जयघोष से हिमशिवलिंग के दर्शन के लिए कमान से छोड़े तीर की भाँति चल पड़ते हैं। अमरनाथ के पहले कई हिमनद पार करके एवं अमरगंगा में स्नान करके यात्री मन एवं शरीर से 100 फिट लम्बी एवं 150 फिट चौड़ी गुफ़ा में पंक्तिबद्ध दर्शन के लिए धीरे-धीरे आगे बढ़ते हैं। अन्त में भक्त की आकांक्षा पूरी होती है और ठोस बर्फ़ से बना शिवलिंग देखते ही आह्लाद एवं विस्मय मिश्रित श्रद्धा-भक्ति से यात्रियों का अन्तर्मन बाबा अमरनाथ की अमरगाथा के प्रतीक कबूतरों के झुण्ड की भाँति अनन्त आकाश में बिहार करने लगता है।
                                                                                   -विजय

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||
    शुभ-कामनाएं ||

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  2. इस प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी की गई है!
    यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

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  3. यात्रा अच्छी रही, लेकिन फ़ोटॊ व एक की किस्त में निपटाने से बहुत कुछ छूट गया?

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