महाकाश में एक अकेला,
विचर रहा हो पाँखी जैसे।
घने तिमिर में रश्मि खोजता,
भटक रहा हूँ मैं भी वैसे।।
अपने ही द्वन्द्वों से अब तक,
जूझ रहा हूँ एक अकेला।
आस-पास जो घटित हो रहा,
वह तो है दुनिया का मेला।।
ऐसा कोई खेल नहीं है,
जिसको मैंने कभी न खेला।
दुनिया के इस रंगमंच पर,
गुरू बना मैं, बना मैं चेला।
सुख-दुःख के इस धूप-छाँव को,
मैंने एकाकी ही झेला।
एक दिवस इस महाशून्य में,
खो जाऊँगा मैं भी वैसे।
महाकाश में एक अकेला,
विचर रहा हो पाँखी जैसे।।
-विजय
विचर रहा हो पाँखी जैसे।
घने तिमिर में रश्मि खोजता,
भटक रहा हूँ मैं भी वैसे।।
अपने ही द्वन्द्वों से अब तक,
जूझ रहा हूँ एक अकेला।
आस-पास जो घटित हो रहा,
वह तो है दुनिया का मेला।।
ऐसा कोई खेल नहीं है,
जिसको मैंने कभी न खेला।
दुनिया के इस रंगमंच पर,
गुरू बना मैं, बना मैं चेला।
सुख-दुःख के इस धूप-छाँव को,
मैंने एकाकी ही झेला।
एक दिवस इस महाशून्य में,
खो जाऊँगा मैं भी वैसे।
महाकाश में एक अकेला,
विचर रहा हो पाँखी जैसे।।
-विजय
ऐसा कोई खेल नहीं है,
जवाब देंहटाएंजिसको मैंने कभी न खेला।
दुनिया के इस रंगमंच पर,
गुरू बना मैं, बना मैं चेला।
yun hi chalta hai samay ka khel
सुन्दर गीत सर,
जवाब देंहटाएंसादर बधाई..
अपने ही द्वन्द्वों से अब तक,
जवाब देंहटाएंजूझ रहा हूँ एक अकेला।
आस-पास जो घटित हो रहा,
वह तो है दुनिया का मेला।।
...बहुत सच कहा है..बहुत सटीक और सारगर्भित अभिव्यक्ति..
सुख-दुःख के इस धूप-छाँव को,
जवाब देंहटाएंमैंने एकाकी ही झेला।
एक दिवस इस महाशून्य में,
खो जाऊँगा मैं भी वैसे।
महाकाश में एक अकेला,
विचर रहा हो पाँखी जैसे।।
बहुत सुन्दर प्रस्तुति