वो कहां है, कैसा है, है भी कि नहीं,
ख़ुदा के वास्ते न सोच बड़ा झमेला है
कहीं पे राग-रंग कहीं पे ग़म का समन्दर,
यार! यह ज़िन्दगी भी अज़ीब मेला है।
ज़िन्दगी ने ठोकरें देकर जिसे सिखाया है,
वह न किसी का गुरू है न किसी का चेला है।
ख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा,
वह भीड़ में भी सदा अकेला है।
किसान का दर्द क्या समझें संसद वाले,
जेठ के ओले, सूखा सावन कहां झेला है।
-विजय
ख़ुदा के वास्ते न सोच बड़ा झमेला है
कहीं पे राग-रंग कहीं पे ग़म का समन्दर,
यार! यह ज़िन्दगी भी अज़ीब मेला है।
ज़िन्दगी ने ठोकरें देकर जिसे सिखाया है,
वह न किसी का गुरू है न किसी का चेला है।
ख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा,
वह भीड़ में भी सदा अकेला है।
किसान का दर्द क्या समझें संसद वाले,
जेठ के ओले, सूखा सावन कहां झेला है।
-विजय
किसान का दर्द क्या समझें संसद वाले,
जवाब देंहटाएंजेठ के ओले, सूखा सावन कहां झेला है।
विजय जी,,,,आपने बिलकुल शी कहा,,,,,,
RECENT POST,,,इन्तजार,,,
ज़िन्दगी ने ठोकरें देकर जिसे सिखाया है,
जवाब देंहटाएंवह न किसी का गुरू है न किसी का चेला है।
ख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा,
वह भीड़ में भी सदा अकेला है.....wakai anubhav hee sabse bada guru hai..sadar badhayee aaur sadar pranaam ke sath
बहुत ख़ूब!
जवाब देंहटाएंआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 06-08-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-963 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
बहुत सही कहा है आपने ... बेहतरीन
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट प्रस्तुति ....
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति...
सादर
अनु
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंकृपया आप इसे अवश्य देखें और अपनी अनमोल टिप्पणी दें
यात्रा-वृत्तान्त विधा को केन्द्र में रखकर प्रसिद्ध कवि, यात्री और ब्लॉग-यात्रा-वृत्तान्त लेखक डॉ. विजय कुमार शुक्ल ‘विजय’ से लिया गया एक साक्षात्कार
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जवाब देंहटाएंख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा
वह भीड़ में भी सदा अकेला है
बहुत सही कहा आपने
आदरणीय डॉ. विजय कुमार शुक्ल ‘विजय’ जी !
अच्छी रचना है …
पोस्ट बदले हुए बहुत समय बीत गया…
आशा है , स्वस्थ-सानंद हैं
नई रचना का इंतज़ार है
:)
दीवाली की अग्रिम शुभकामनाओं सहित…
राजेन्द्र स्वर्णकार
http://www.parikalpnaa.com/2012/12/blog-post_17.html
जवाब देंहटाएं"ख़ुद्दारी और सच्चाई का जिसने दामन थामा,
जवाब देंहटाएंवह भीड़ में भी सदा अकेला है।
किसान का दर्द क्या समझें संसद वाले,
जेठ के ओले, सूखा सावन कहां झेला है।"
सीधी सच्ची और खरी बात