शनिवार, 17 सितंबर 2011

मिटे न मन की प्यास


सावन भादों जमकर बरसे, बहे पवन उनचास।
जल ही जल है, सृष्टि तरल है, मिटे न मन की प्यास।।


झूठ फ़रेब और सच्चाई, यह तो युग-युग से है भाई।
भोले करते गरलपान हैं, राम जायं वनवास।।


मन को रोको, आगे देखो, मत पलटो इतिहास।
आगे बढ़ना धर्म हमारा, जब तक तन में सांस।।


जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।


राम डूब गये, सीता धंस गईं, कृष्ण तीर के फांस।
पाण्डव गल गये बचा न कोई, मन में फिर भी आस!


बदला युग तो बदले सब कुछ, बदले रीति-रिवाज।
सीता भोगे दंश विरह का, सुर्पनखा रनिवास।।


बदला है युग फिर बदलेगा, हम सुधरेंगे, जग सुधरेगा।
बार-बार का ठगा हुआ मन, कर ले फिर विश्वास।।
                                                                                                                       -विजय

13 टिप्‍पणियां:

  1. ! बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  2. जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
    सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।


    sach me sahitya samaj ka darpan hai..badhayee aaur sadar pranam ke sath

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  3. सटीक और सार्थक रचना ..सुन्दर अभिव्यक्ति

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  4. जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
    सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।

    गहन भाव लिये बहुत सार्थक और सटीक रचना..

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  5. बहुत बढ़िया प्रस्तुति ||

    आपको हमारी ओर से

    सादर बधाई ||

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  6. आप सब साहित्य प्रेमियों को मेरा नमस्कार और धन्यवाद,

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  7. जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
    सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।

    जवाब देंहटाएं
  8. जीवन बीता चलते-चलते, गिरते-पड़ते और संभलते।
    सारे वाहन घर में रक्खे, अन्त चले चढ़ बांस।।
    सहज परिवर्तन के बीच आस निखारती रचना ,बेहद सुन्दर हस्ताक्षर ,जीवन के ,परिवर्तन के .

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  9. क्या कहना शुक्ला जी !
    बस एक बार पढ़ा तो बार-बार पढने को मन किया ...और पढ़ा भी
    मन तृप्त भी हुआ और अशांत भी ....
    बहुत सुन्दर रचना..

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  10. बहुत ही खूबसूरत रचना है सर जीवन की सच्चाई बयाँ करती हुई। जीवन की वास्तविकता यही है लेकिन आदमी इसे स्वीकार नहीँ करना चाहता।वन की वास्तविकता यही है लेकिन आदमी इसे स्वीकार नहीँ करना चाहता।

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