रविवार, 4 सितंबर 2011

जन-जन का आधार चाहिए

काम अगर करना हो कुछ भी,
जन-जन का आधार चाहिए।


ध्यान नहीं लगता निर्गुण में,
रूप एक साकार चाहिए।


सुख में भी मन क्यों उदास है?
मन को निश्छल प्यार चाहिए।


बहुत संजोए सपने हमने,
अब उनको आकार चाहिए।


सब कुछ सह लेने वालों को,
गीता की ललकार चाहिए।


लड़की बिन्दी को तरसे है,
लड़के को तो कार चाहिए।


गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
उनको आँखें चार चाहिए।


सम्बन्धों की उच्छृंखलता को,
थोड़ा सा आचार चाहिए।


अब तक जो सड़कों पर सोते,
उनको भी आगार चाहिए।


निर्वस्त्रों को वस्त्र चाहिए,
भूखों को भण्डार चाहिए।।
                                                        -विजय

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा दिनांक 05-09-2011 को सोमवासरीय चर्चा मंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति ||

    बधाई |

    और बधाई ||

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत खूब कहा आपने...सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना..आभार

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर और प्रभावी अभिव्यक्ति॥

    जवाब देंहटाएं
  5. बहुत संजोए सपने हमने,
    अब उनको आकार चाहिए।

    वाह वाह.... बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति सर....
    सादर बधाई...

    जवाब देंहटाएं
  6. गुरु-दक्षिणा अब मॉसल है,
    उनको आँखें चार चाहिए।

    विजय जी, इन पंकतियो का मतलब समझाये

    जवाब देंहटाएं
  7. सब तो नहीं ,बहुत सारे शिक्छ्को का शिश्याओ से अतिरिक्त अनुराग पर यह कटाक्छ है अनिल जी.

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  8. बहुत मर्मस्पर्शी भावपूर्ण अभिव्यक्ति.

    जवाब देंहटाएं

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