बुधवार, 12 अक्तूबर 2011

डायरी के पन्नों से : फूलों की घाटी

       ख़याली पुलाव तो वर्षों से पका रहा था। फूलों की घाटी की रंगीन कल्पनाओं में मन छिछली खाते-खाते अक्सर डुबकी मार जाता था। कल्पनाओं के कैनवस पर अपने मन-पसन्द चित्र बनाते-बनाते अक्सर मैं फूलों की घाटी में विचरण किया करता था। फिर आख़िर वह शुभ घड़ी आ ही गई। अन्ततः चार फक्कड़ घुमक्कड़ निकल ही पड़े। केदारनाथ, बद्रीनाथ, हेमकुण्ड साहिब एवं फूलों की घाटी के धार्मिक-आध्यात्मिक एवं प्राकृतिक सुषमा का पान करने के लिए।
     अपनी सूक्ष्म आवश्यकताओं का पुनः सूक्ष्मीकरण करने के बाद अत्यावश्यक सामानों का पिट्ठू लेकर हम लोग चल दिये उत्तराखण्ड दर्शन हेतु। बलरामपुर से लखनऊ एवं लखनऊ से हरिद्वार की यात्रा तो कट गई इस कल्पना लोक में अपने मन पसन्द रंग भरने में, तन्द्रा टूटी तो अपने को खड़ा पाया पतितपावनी गंगा के श्री चरणों में हरि की पैड़ी पर। हल्की बारिश में भीगते हुए हरि की पैड़ी का अनवरत छिप्र प्रवाह उसी गति से हमें मानव-सभ्यता के आदिम इतिहास की ओर ले जा रहा था जब हमारे पूर्वज इसकी कल्याणकारी शक्ति से अभिभूत हो इसके किनारे बसते चले गये थे। हरिद्वार में ही मालूम हो गया कि केदारनाथ का रास्ता भू-स्खलन के कारण बन्द है। परन्तु हम तो केदारनाथ जाने का निश्चय करके आये थे और निश्चय दृढ़ था अतः मनसा देवी की चढ़ाई-उतराई को पूर्वाभ्यास स्थल की तरह प्रयोग करने का निश्चय हुआ, देवी-दर्शन का नाम तो बोनस था। मनसादेवी की चढ़ाई तो सीढ़ियों की चढ़ाई है और दुरूह न होने पर भी अन्यमनस्क मांशपेशियों के लिए कष्टकर तो है ही। उसी रात अलकनन्दा एवं मन्दाकिनी के संगम स्थल रुद्रप्रयाग में अलकनन्दा के किनारे कुछ देर बैठने पर लगा कि अलकनन्दा एकाकीपन से तंग आकर मन्दाकिनी से मिलने और त्वरित होकर, रुकते-रुकते पत्थरों पर उछलती हुई, मिलन सामीप्य जानकर उमंग से जयघोष करती जा रही है।
       रुद्रप्रयाग से केदारनाथ एवं बद्रीनाथ का रास्ता अलग हो जाता है। अपने पूर्व कार्यक्रम के अनुसार हम लोग अलकनन्दा पार करके मन्दाकिनी के किनारे-किनारे पर्वतों की व्यथा-कथा सुनते आगे बढ़े। केदारनाथ से 56 किमी. पहले बस बेबस हो गई-रास्ता बन्द। हम लोग कुण्ड एवं ऊखीमठ के बीच छोड़ दिये गये। सड़क पर मोमजामा ताने एक दूकानदार कुछ कमा लेने की आशा लगाये पानी और आँधी से संघर्षरत था। कुछ चाय-पकौड़े खाकर अपना अतिरिक्त सामान उस अनजाने व्यक्ति को सौंप, ऊखीमठ से मन्दाकिनी की उतराई एवं मन्दाकिनी पुल को पारकर गुप्तकाशी की सीधी चढ़ाई पार करके हम पहुँचे गुप्तकाशी की अत्यन्त मनोरम एवं देवर्षि नारद की तपस्थली पर। दिन के एक बज रहे थे अतः खाना खाकर फिर चल पड़े केदारनाथ बाबा की जयघोष बोलकर। जगह-जगह रास्तों को पारकर फाण्टा होते हुए दीपक जलने के बाद पहुँचे सोन प्रयाग। 36 किमी. चल चुकने एवं पूर्ण अन्धकार हो जाने के कारण यहीं रात्रि विश्राम की ठानी। धुप अँधेरे, घनघोर बारिश, रजाई गद्दों में पिस्सुओं की पूरी फ़ौज का सामना करते हुए रात आँखों में कट गई। आराम से कोई सोया तो भास्कर दीक्षित जिसके रक्त में कदाचित कोई पिस्सूमार ज़हर ज़रूर रहा होगा। सुबह उठकर सारा बदन खुजलाते हुए सोनप्रयाग में चाय पीने तक की हिम्मत न करके काफ़ी द्रुतगति से बढ़ चले हम, गौरीकुण्ड के तप्तकुण्ड की ओर इस आशा में कि पिस्सूदंशित इस चोले को कुछ तो आराम मिलेगा ही मिलेगा, गर्म जलधारा में। गौरीकुण्ड जहाँ पर कुंवारी पार्वती ने तपस्या की थी भोले शंकर के लिए। जो सोनप्रयाग से 7 किमी. दूर स्थित है। आनन-फानन में भागते-दौड़ते (पिस्सू पॉवर से) हम सीधे कुण्ड में गोता लगा गये। पानी काफ़ी गरम, परन्तु आरामदायक था। पिस्सुओं की क्या गति हुई होगी यह वही जाने परन्तु हम लोग तो बिल्कुल थकान एवं पिस्सू विहीन हो गये उस परम् पवित्र कुण्ड में स्नान करके। पूजन एवं जलपान के बाद फिर मौज़ से चल पड़े बाबा केदारनाथ की दुर्गम चढ़ाई पर। नीचे गरजती हुई मन्दाकिनी एवं दुर्लभ पुष्पों से हाय! हेलो! करते हुए तथा विभिन्न साफ़-सुथरी चट्टियों पर चाय-पानी छानते हुए शाम पाँच बजे हम पहुँच गये केदारनाथ की घाटी में जहाँ मन्दाकिनी, महोदधि, छीरगंगा, स्वर्गारोहण एवं सरस्वती नदियां आदि देव के पाँव पखारती हुई सारे भेद-भाव भूलकर एक हो जाती हैं।
      भीषण थकान और सर्दी से त्रस्त जब हम पण्डा जी के यहाँ पहुँचे तो उनके सहृदय आतिथ्य एवं साफ-सुथरी रजाइयों के अन्दर बैठ कर चाय की गर्म प्यालियों के आनन्द ने जीवन में पहली बार यह सोचने को विवश किया कि क्या किसी होटल या टूरिस्ट लॉज में यह आतिथ्य सम्भव है? घर के किसी बड़े बुज़ुर्ग की भांति हमारी सारी आवश्यकताओं पर नज़र रखते हुए घर के सब लोगों का कुशल समाचार पूछकर एवं रात्रि भोजन की भी बिना रजाई से निकले हुए खाने की व्यवस्था करके पण्डा जी ने रात्रि-विदा ली। दूसरे दिन प्रातः श्री केदारनाथ का विधिवत् पूजन-दर्शन कराकर एक विद्वान् गाइड की भाँति वहां के धार्मिक इतिहास से पण्डा जी ने परिचय कराया। आदिगुरु शंकराचार्य की समाधि-स्थली एवं अन्य स्थलों को देख हम वापसी को चल पड़े। रात होते-होते गुप्तकाशी पहुँचकर विश्राम किया। दूसरे दिन रुद्रप्रयाग और वहां से जोशीमठ की यात्रा बस से निर्विघ्न समाप्त की। प्रातः स्नानादि क्रिया से निवृत्त होकर बस अड्डे पहुँचने पर मालूम हुआ कि हम कुछ मिनट देर से पहुँचे हैं, अब दूसरी बस तीन घण्टे बाद ही मिलेगी। इतनी देर बैठकर प्रतीक्षा करना पैदल चल देने से ज्यादा कष्टकर लगा। अतः जोशीमठ से सारा सामान पीठ पर लादकर विष्णुप्रयाग के लिए चल दिए। विष्णुप्रयाग में सार्वजनिक निर्माण विभाग की ट्रक ने तरस खाकर लिफ्ट दे दी और पहुँच गए पाण्डुकेश्वर फिर वहां से हनुमान चट्टी पुनः पदयात्रा। हनुमान चट्टी पर बस मिल गई जो दोपहर तक बद्रीनाथ पहुँच गई।
       तप्तकुण्ड में स्नान कर देवदर्शन एवं भोजनोपरान्त हम चल दिए माणा गांव जो चीन-भारत सीमा का सीमान्त गांव है। वहां पर भीमपुल, व्यासगुफ़ा एवं गणेश गुफ़ा का दर्शन करके पुनः अपने विश्रामस्थली पहुँचकर भोजनादि के पश्चात् तुरन्त सोने का कार्यक्रम बना क्योंकि प्रातः पाँच बजे ही श्री बद्रीनाथ का निर्वाण-दर्शन का निश्चय था। निर्वाण-दर्शन एवं श्रृंगार-दर्शन करके जब वापस जाने का उपक्रम किया तो पता चला कि गढ़वाल मोटर्स ओनर्स यूनियन ने अपनी मांगों के लिए चक्काजाम का आह्वान किया है। बनारस के एक मास्टर साहब अपने कुछ मित्रों के साथ एक जीप पर सवार अपनी वापसी की तैयारी कर रहे थे। तुरन्त बनारसी बाबू से ससुरारी रिश्ता जोड़ा तो वे बहुत ख़ुश हुए। इसलिए नहीं कि रिश्ता ससुरारी था वरन् इसलिए कि उनकी जीप धक्का परेड थी और हम चार मुसटण्डों को देखकर उन्हें आशा बँध गई थी कि हम लोग अपने बुल पॉवर का प्रयोग कर गाड़ी स्टार्ट तो करा ही देंगे। सहकारी भाव विकसित हुआ और लगे हम जीप धकेलने। पूरे चालीस मिनट धक्का देने पर कहीं जाकर जीप स्टार्ट हुई और हम बद्रीनाथ की ठंडक में हो गये सराबोर पसीने से। परन्तु अभी हमारे कष्टों का अन्त कहां था? जीप को वापस भेज दिया बद्रीनाथ छूटे हुए बनारसियों को वापस लाने के लिए और जब दो घण्टे वह नहीं लौटी तो अपने भाग्य को कोसते हुए पुनः चढ़ाई चढ़कर पहुँचे वहीं जहां से चले थे। पता चला कि चक्का जाम में पुलिस वालों ने रोक लिया है जीप को। अन्ततः ग्यारह बजे हड़ताल वापस हुई और हम जीप में लटक कर वापस हुए गोविन्दघाट के लिए।
       गोविन्दघाट में रहने के लिए केवल एक गुरुद्वारा है। वहीं पर अपना सामान जमा करके लंगर में प्रसाद छके और चल दिए दो विदेशी सहयात्रियों के साथ घघरियाघाट के लिए। रास्ता कठिन एवं प्राकृतिक सुषमा के लिहाज से सामान्य था। भ्यून्दर नदी के किनारे-किनारे सतत् चढ़ाई पार करके जब हम घघरिया पहुँचे तो अँधेरा हो चुका था। जल्दी-जल्दी कम्बल वगैरह लेकर जिस कमरे में सोने की जगह मिली तो देखा कि वहां पहले से चालीस युवक-युवतियां जो बड़ौदा के डाल्फिन क्लब के मेम्बर थे अखाड़ा जमाए थे। ख़ैर हम ठहरे पुराने घुसपैठी और अन्ततः जगह केवल कमरे में ही नहीं, अन्य वासियों के दिल में भी बना ली। दूसरे दिन फूलों की घाटी का कार्यक्रम था पर बारिश थी कि थमने का नाम ही नहीं ले रही थी।
       निश्चित हुआ कि आज हेमकुण्ड साहिब भीगते हुए चला जाय क्योंकि फूलों की घाटी में छायांकन के लिए धूप की आवश्यकता होगी और हेमकुण्ड साहिब में धूप न भी हुई तो कोई बात नहीं। पर अभी एक या डेढ़ किमी. ही चढ़े थे कि धूप निकल आई और हेमकुण्ड साहिब में तो मौसम बहुत ही अच्छा रहा। हेमकुण्ड साहिब का रास्ता अति दुर्गम है पर रास्ते में भोजपत्र के जंगल, बुरांश के फूल और बह्मकमल की ख़ुश्बू थकान के आभास को भी पास नहीं आने दे रहे थे। हेमकुण्ड एक दिव्य एवं मनोरम सरोवर है। यह लक्ष्मण की तपस्थली है एवं गुरुगोविन्द सिंह जी ने गुरुग्रन्थ साहिब में इसको अपने पूर्व-जन्म की तपस्थली बताया है। पहले इसको लक्ष्मणकुण्ड कहा जाता था पर अब सिख धर्मावलम्बियों के काफ़ी जाने से  उसे हेमकुण्ड के नाम से जाना जाने लगा। लक्ष्मणकुण्ड साल के आठ महीने जमा रहता है। अभी भी बर्फ़ की चट्टाने इसमें तैर रही थीं। उस बर्फ़ीले पानी में घुसकर तीन डुबकियां लगाईं तो लगा कि शरीर जम गया।
       इस जगह की शोभा सचमुच अविस्मरणीय है। नहाकर उस ठंडक में गुरुद्वारे का कड़ाह प्रसाद एवं गर्मागर्म ग़िलास भर चाय अमृतपान से कम आरामदायक नहीं था। बगल में ही लक्ष्मण जी का एक अति प्राचीन मन्दिर है, वहां शेषनाग के अवतार उस विलक्षण भ्रातृ-प्रेमी का दर्शन कर हम कृतार्थ हुए।
       मैं तो नहा धोकर कब का फ़ारिग हो चुका था परन्तु मेरा अधोवस्त्र अभी भी नहा रहा था, परन्तु अकेले नहीं, किसी की कमर पर चढ़कर। आज उसे समाज-सेवा की सूझी थी अतः कई लोगों को नहलाने के बाद भी अभी व्यस्त था। अनुनय-विनय करके उसे प्राप्त किया एवं गीला ही लेकर नीचे खिसका। सीधी उतराई पर शरीर पैरों से आगे चलने की हठ कर रहा था, बहुत समझा-बुझाकर उसे पैरों के साथ चलने पर राज़ी किया।
       दूसरे दिन सुबह फूलों की घाटी के लिए मौसम अच्छा हो गया। घाटी घघरियाघाट से तीन किमी. है। बीच में कई बर्फ़ के पुल एवं कई भोजपत्र के जंगलों से होते हुए पुस्पावती नदी के किनारे-किनारे जब फूलों की घाटी पहॅँचे तो उस प्राकृतिक सुषमा का पान किया जो अपने में अद्वितीय तो है ही पर निहायत शालीन। गन्धमादन पर्वत पर मादक गन्धों से मन द्रौपदी और पाण्डवों के साथ-साथ चलने लगता है। कामथ गिरि (Commet) का भव्य रजत रूप सुन्दर पुष्पों एवं चंचल पुष्पगंगा को अहर्निश निहारता रहता है। आजकल की चमक-दमक, लक-दक एवं दिखावे की दुनिया में ख़ूबसूरती आंकने का लोगों का पैमाना अक्सर ओछा होता है, अतः वहां पर जाकर यह कहने वाले काफ़ी मिलते हैं कि फूलों के अलावा क्या है यहां? पता नहीं और क्या देखने जाते हैं लोग।
       दिनभर फूलों की सुगन्ध का आनन्द लेते हुए और छायांकन करते हुए हम घूमते रहे घाटी में। एक गुजराती सज्जन ने पराठे खिलाए और कहा कि अच्छा है ये फूल गुजरात में नहीं होते वर्ना इनकी मदमाती सुगन्ध वहां की दारू इण्डस्ट्री ही बन्द करवा देती। शायद दारू का व्यापार था उनका।
       फूलों की घाटी से लौटकर घघरिया घाट एवं पुनः उन्हीं जानी पहचानी चढ़ाइयों की उतराई नापते हुए हम गृहोन्मुख हुए तो सब-के-सब चुप, अपने से बतियाते एवं नवोदित सौन्दर्य-बोध की गहराइयों को थहाते, बहुत कुछ नया देख पाने की खुशी और उसके दूर जाने के दुःख का एक साथ अनुभव करते जब हम नापे हुए कदमों का हिसाब लगाने बैठे तो पता चला कि फ़कत 170 किमी. की पदयात्रा करके चारो बुद्धू घर को लौटे हैं।
                                                                                            -विजय

10 टिप्‍पणियां:

  1. मैंने भी हेमकुंठ के पानी/जलजले में सात डुबकी लगायी थी, सोच कर तो ग्यारह गया था लेकिन सात भी कैसी लगाई बस मैं ही जानता हूँ।

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  2. बढ़िया प्रस्तुति |
    हमारी बधाई स्वीकारें ||

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  3. aaderniya sir..aaj sahitya lekhan ki is bidha me aapki gahri paith ke bhi sakkshatkar hue..aapne jo yaatra sukh apne pawon aaur jeep aaur tamam gadiyon se manjil dar manjil pahunchkar uthaya wahi poora lutf maine aapke shabdon ke sarita me bahte hue bibhinn tatbandhon se gujarte hue uthaya..bade he sukshm roop se aitihasik tathyon ko aapne bakhoobi utkris sahityik bhasa ke samanbay se ujagar kiya..wahin aapne hasya ke put beech beech me daalkar pathak ko nav sfurti aaur prasannchitt banaye rakha hai..jo yatri hota hai wah to sedhiyon per chai paani karta chalta hai per pathak ka chai pani to aapke ye gudguda dene wali hansa dene wali panktiyan hain......bas chalte chalte bebas ho gayi...shaud usne pisso ka jahar mitane wali dawa kha rakhi thi.... kahin kahin jism paron se aage chalna chah raha tha use raji kiya sath chalne ke liye....banarsi babu se sasurari rista.....ham to thahare janmjaat ghuspaithiye ..dil me bhi jagah bana li...is sunder shrajan aaur iske shrjeta ko sadar pranam ke sath

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  4. बदरीनाथ यात्रा की यादें ताजी हो गयीं पढकर...
    सादर आभार...

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  5. बढ़िया प्रस्तुति |
    हमारी बधाई स्वीकारें ||

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  6. सर, आज सालों बाद भी उस यात्रा की सुखद यादें हम तीनों भाइयों को रोमांचित करती रहती हैं. आपके इस संस्मरण लेख को पढ़कर वापस वो दिन याद आ गये। कोटि-कोटि प्रणाम।

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  7. Your writing always resonates with me. Looking forward to more engaging content! also Read my blog Valley of Flowers National Park

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