रविवार, 8 अप्रैल 2012

खिल उठी है ज़िन्दगी फिर

खिलखिलाती धूप निकली, चाँद शरमा सा गया।
खिल उठी है ज़िन्दगी फिर, जो अंधेरा था गया।।

आइने में शक्ल देखी, फिर जवां लगने लगा,
लो हवा का एक झोंका, चेहरा ये सहला गया।।

हौसला है कूद करके, यह समन्दर तैर लूँ,
बाजुओं में अब कहाँ से फिर वही दम आ गया।।

भूख खुलकर लग रही है, अंतड़ियां चलने लगीं,
बन्द था जो मर्तबानों में ग़िज़ा सब खा गया।।

बारिशों में धूल जैसे पत्तियों की साफ़ हों,
वक्त का अवसाद धुलकर मन को फिर चमका गया।।

हैं अचम्भित आप सब ये यकबयक कैसे हुआ?
एक नन्हीं तोतली बोली से यह दम आ गया।।
                                                                                   -विजय

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर वाह!
    आपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 09-04-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ

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  2. शब्द चयन -सुन्दर
    भाव -प्रभावशाली |
    बहाव- लाजवाब ||

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  3. नयी स्फूर्ति का स्वागत , वरना इस दौर में जिंदगी को फुरसत कहाँ खिलने के लिए ......

    जवाब देंहटाएं
  4. बारिशों में धूल जैसे पत्तियों की साफ़ हों,
    वक्त का अवसाद धुलकर मन को फिर चमका गया।।
    वक्त का अवसाद धुलकर मन को फिर चमका गया।।

    जवाब देंहटाएं
  5. खिलखिलाती धूप निकली, चाँद शरमा सा गया।
    खिल उठी है ज़िन्दगी फिर, जो अंधेरा छा गया।।
    यही तो oxymoron है विरोधालन्कार है .

    जवाब देंहटाएं
  6. इस उमर में शब्द सारे चुभ रहे थे शूल से
    तोतली बोली का मरहम ले फरिश्ता आ गया...

    मन से उपजी गज़ल............वाह !!!!!!!!!!!!!!!

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