आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने,
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।
रौंदकर अपने अहम को,
हाथ फैलाकर तुम्हारे द्वार पर,
दान की झोली लिए दर-दर फिरा,
आजीविका तो यह नहीं थी मान्यवर!
व्यस्तता के क्षण हुए तब सूर्य-रथ से
हो गयी चिन्तित सुस्वप्नों की लड़ी भी,
सूखकर जब रह गयी थी प्रियतमा के
मार्ग तकते अश्रुओं की वह झड़ी भी।
प्यार शिशुओं का न मुझको खींच पाया,
भावना कर्त्तव्य से बढ़कर नहीं है,
सोच कर यह पुष्प अन्तर के
न अब तक सींच पाया, पर
खुली जब आँख तो देखा
कि यह क्या?
मैं चला था साथ जिन सब बन्धुओं के
वे खड़े हैं हाथ में पत्थर उठाये!!
शक्ति पैरों की वहीं पर जम गयी तत्क्षण
विश्वास के मोती लगे जब कौड़ियों के मोल बिकने।
आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने।
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।।
याद करता रहा बीते हुए क्षणों की मिठास
भरमाता रहा अपने को रीते हुए सम्बन्धों में,
क्या रोक सकता है कोई!
शाम की ढलती हुई उजास?
धीरे-धीरे पर्त-दर-पर्त ज्यों-ज्यों खुले
प्रकृति के शाश्वत नियम
होने लगा इस बात का एहसास
कलियों की पंखुड़ियों का अवगुण्ठन
क्या हो सकता है पुष्पों के पास!
और अगर यह कसाव सिथिल न हुआ
तो क़ैद सौरभ, क्या रह जायेगा उदास!
कच्चे कठोर फल क्या पायेंगे?
पके हुओं की बू-बास!
तो ऐ मेरे मन! मत ले लम्बी निःश्वास
आने वाले की चिन्ता मत कर-
बीते क्षणों का रोना मत रो!
जी हर क्षण-हर पल
सुरभित करदे अपनी हर सांस!
-विजय
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।
रौंदकर अपने अहम को,
हाथ फैलाकर तुम्हारे द्वार पर,
दान की झोली लिए दर-दर फिरा,
आजीविका तो यह नहीं थी मान्यवर!
व्यस्तता के क्षण हुए तब सूर्य-रथ से
हो गयी चिन्तित सुस्वप्नों की लड़ी भी,
सूखकर जब रह गयी थी प्रियतमा के
मार्ग तकते अश्रुओं की वह झड़ी भी।
प्यार शिशुओं का न मुझको खींच पाया,
भावना कर्त्तव्य से बढ़कर नहीं है,
सोच कर यह पुष्प अन्तर के
न अब तक सींच पाया, पर
खुली जब आँख तो देखा
कि यह क्या?
मैं चला था साथ जिन सब बन्धुओं के
वे खड़े हैं हाथ में पत्थर उठाये!!
शक्ति पैरों की वहीं पर जम गयी तत्क्षण
विश्वास के मोती लगे जब कौड़ियों के मोल बिकने।
आज बैठा हूँ सृजन इतिहास लिखने।
भुक्त-भोगी दर्द का एहसास लिखने।।
याद करता रहा बीते हुए क्षणों की मिठास
भरमाता रहा अपने को रीते हुए सम्बन्धों में,
क्या रोक सकता है कोई!
शाम की ढलती हुई उजास?
धीरे-धीरे पर्त-दर-पर्त ज्यों-ज्यों खुले
प्रकृति के शाश्वत नियम
होने लगा इस बात का एहसास
कलियों की पंखुड़ियों का अवगुण्ठन
क्या हो सकता है पुष्पों के पास!
और अगर यह कसाव सिथिल न हुआ
तो क़ैद सौरभ, क्या रह जायेगा उदास!
कच्चे कठोर फल क्या पायेंगे?
पके हुओं की बू-बास!
तो ऐ मेरे मन! मत ले लम्बी निःश्वास
आने वाले की चिन्ता मत कर-
बीते क्षणों का रोना मत रो!
जी हर क्षण-हर पल
सुरभित करदे अपनी हर सांस!
-विजय
gahan chintan se ot prot lajab rachna...sir bilkul usi mijaj kee hai jaisi aapne apne blog kee pahli kavita likhi thee aaur ham logon ne use aapke mukh se sunne ka labh uthay tha..yah rachna to aapse hee sunni padegi..sadar pranam ke sath
जवाब देंहटाएंतो ऐ मेरे मन! मत ले लम्बी निःश्वास
जवाब देंहटाएंआने वाले की चिन्ता मत कर-
बीते क्षणों का रोना मत रो!
जी हर क्षण-हर पल
सुरभित करदे अपनी हर सांस!
बहुत अच्छे सकारात्मक भाव हैं इन पंक्तियों में...
सुन्दर अभिवयक्ति....नववर्ष की शुभकामनायें.....
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